दण्ड १२७ भरदलो--हजूर, बिलकुल फटे-हाल है। साहन-गुदड़ी ही में लाल होते हैं। जाकर भेज दो। मिस्टर सिनहा अधेड़ आक्ष्मी थे, बहुत ही शान्त, बहुत ही विचारशील । बातें "बहुत कम करठे थे। कठोरता और असभ्यता, जो शासन का अङ्ग समझी जाती है, उनको छू भी नहीं गई थीं। न्याय और क्ष्या के देवता मालूम होते थे। निगाह ऐसी बारीक पाई थी कि सूरत देखते ही आदमो पहचान जाते थे। डोल-ढोल देवों का-सा था और रङ्ग मायनूस का-सा । भाराम-कुर्सी पर लेटे हुए पेचवान पो रहे थे। बूढ़े ने जाकर सलाम किया। सिनहा-तुम हो जगत पाहे ? आओ बैठो। तुम्हारा मुकदमा तो बहुत हो कमोर है । मले आदमी, जाल मी न करते पना ? जगत-ऐसा न कहें हजूर, गरोष भादमी हूँ, मर जाऊँगा। सिनहा-किसी वकील मुख्तार से सलाह भी न ले ली ? जगत-अम तो सरकार को सरन आया हूँ। सिनहा- सरकार क्या मिसिल बदल देंगे; या नया कानून गढ़ेगे ? तुम मच्चा खा गये। मैं कभी कानून के बाहर नहीं जाता। जानते हो न, अपील से कभी मेरी तजवीज़ रद्द नहीं होती? जगत बड़ा धरम होगा सरकार ! (खिनहा के पैरों पर गिन्नियों को एक पोटली रखकर ) बड़ा दुखी हूँ सरकार । सिनहा-(मुकिराकर ) यहाँ भो अपनी चालमाशी से नहीं चूकते ! निकालो -अभी और । ओस से प्यास नहीं बुझती । भला दहाई तो पूरा करो। जगत-बहुत ता हूँ दीनबन्धु । सिनहा-डालो, ढालो समर में हाथ । भला कुछ मेरे नाम की लाज तो रखो। -लुट जाऊँगा सरकार । सिनहा-लूटें तुम्हारे दुश्मम, जो इलाका बेचकर लड़ते हैं। तुम्हारे यजमानों का भगवान् भला करें, तुम्हें किस बात को कमी है। मिस्टर सिनहा इस मामले में जरा भी रिआयत न करते थे। जगत ने देखा कि यहाँ काइयाँपन से काम न चलेगा तो चुपके से ५ गिन्नियां और निकाली। - लेकिन उन्हें मिस्टर सनहा के पैरों पर रखते समय उसको आँखों से खून निकल जगतः
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