रासस अगर यही दशा रही तो स्वामीजो चाहे सन्यास ले या न लें, लेकिन मैं संसार को अवश्य त्याग दूंगी। भाभी यह पत्र पाकर परिस्थिति समस्त गई । अबकी उसने निरुपमा को बुलाया नहीं, जानती थी कि लोग विदा ही न करेंगे, पति को लेकर स्वयं मा पहुँचौ । उसका नाम सुकेशी था। बड़ी मिलनसार, चतुर, विनोदशोल स्त्रो शो। साते ही आते निरु- पमा को गोद में कन्या देखो तो बोली-अरे, यह क्या ? . सास-भाग्य है, और क्या ! सुकेशी-भाग्य कैसा ? इसने महात्माजी की यात भुला दी होगी। ऐसा तो हो हो नहीं सकता कि वह मुंह से जो कुछ कह दें, वह न हो। क्योजी तुमने मंगळ का व्रत रखा ? निरुरमा-- बरामर, एक व्रत भी न छोड़ा। सुकेशी-पांच ब्राह्मणों को माल के दिन भोजन करातो रहीं ? । निरुपमा-नहीं, यह तो उन्होंने नहीं कहा था। सुकेशो-तुम्हारा सिर ! मुझे खूब याद है, मेरे सामने उन्होंने बहुत ज़ोर देकर कहा था। तुमने सोचा होगा, ब्रह्मणों को भोजन कराने से क्या होता है। यह न समझा कि कोई अनुष्ठान सफल नहीं होता जब तक विविवत् उसका पालन न किया जाय। सास-इसने कभी इसकी चर्चा ही नहीं की, नहीं पाँच क्या, दस ब्राह्मणों को जिमा देती । तुम्हारे धर्म से कुछ कमी नहीं है। मुकेशी-कुछ नहीं, भूल गई और क्या । रानी, बेटे का मुँह यो देखना नसीब नहीं होता । बड़े बड़े जप-तप करने पड़ते हैं, तुम मंगल के एक व्रत ही से घबरा गई। सास-अभागिनी है और क्या ! घमण्डीलाल-ऐसी कौन-सी बड़ी बातें थीं, जो याद न रहो ? यह खुद हम लोगों को जलाना चाहती हैं। सास-वही तो मैं कहूँ कि महात्मा की बात कैसे निष्फल हुई । यहाँ सात मरा तक 'तुलसो माई' को दिया चड़ाया, तब जाके बच्चे का जन्म हुआ। धमण्डोलाल-इन्होंने समझा था, दाल-भात का कौर है । सुकेशी-खैर, अब जो हुआ सो हुआ, कल मंगल है, फिर व्रत रखो और
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