पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/११७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

११६ मानसरोवर कामना न पूरी होती थी। नित्य अवहेलना, तिरस्कार, उपेक्षा, अपमान, सइते-सहते उसका चित्त संसार से विरक्त होता जाता था। जहाँ छान एक मोठी बात के लिए, आँखें एक प्रेम-दृष्टि के लिए, हृदय एक आलिपान जिए तरसाकर रह जायें, घर में अपनी कोई बात न पूछे, वहां जीवन से क्यों न अरुचि हो लाय ? एक दिन घोर निराशा की दशा में उसने अपनी बड़ी भावज को एक पत्र लिखा। उसके एक-एक अक्षर से अहाह्य वेदना टपक रही थी । भाषण ने उत्तर दिया । तुम्हारे भैया जल्द तुम्हें विदा कराने जायेंगे । यहाँ आजकल एक सच्चे महात्मा आये हुए हैं, जिनका आशीर्वाद कमी निष्फल नहीं जाता। यहाँ कई सन्तानहीना स्त्रियाँ उनके भाशीर्वाद से पुत्रवती हो गई । पूर्ण आशा है वि तुम्हें भी उनका आशीर्वाद कल्याणकारी होगा। निरुपमा ने यह पत्र पति को दिखाया। त्रिपाठीजी उदासीन भाव से बोले- सृष्टि रचना महात्माणों के हाथ का काम नहीं, ईश्वर का काम है निरुपमाहीं, लेकिन महात्माओं में भी तो कुछ सिद्धि होती है। घमण्डीलाल-हाँ, होती है, पर ऐसे महात्माओं के दर्शन दुर्लभ हैं। निरुपमा-मैं तो इन महात्मा के दर्शन धरूंगी। घमण्डीलाक'चलो जाना। निरुपमा-जब बाँझिनों के लड़के हुए तो मैं क्या उनसे भी गई-गुज़री हूँ ? घमण्डीलाल छह तो दिया भाई, चली जाना । यह करके भी देख लो, मुके तो ऐसा मालूम होता है, पुत्र का मुख देखना हमारे भाग्य में ही नहीं है। ( २ ) कई दिन बाद निरुपमा अपने भाई के साथ सैल गई। तीनों पुत्रियां भी साथ थी। भाभी ने उन्हें प्रेम से गले लगाकर कहा-तुम्हारे घर के आदमी बड़े निर्दयो हैं। ऐसी गुलाब के फूलों की-सी लड़कियाँ पाकर भी तकदीर को रोते हैं। ये तुम्हें भारी हो तो मुझे दे दो। नम ननद भौर भावज भोजन करके सेटों तो निरूपमा ने पूछा-वह महात्मा कहाँ रहते हैं। भावज-ऐसो जल्दी क्या है, बता दूंगो। निरुपमा-है नगीच ही न ! भाव-बहुत नगीच । जब कहोगो, उन्हें बुला दूंगी।