११४ मानसरोवर ७ । बैधव्य को प्राप्त होकर भी उनकी शिक्षा का प्रबन्ध किया, उसके सामने एक दुध-मुं ही बच्ची का क्या मूल्य था, जिसके हाथ का एक गिलास पानी भी वह न जानते थे। शोकातुर हो कपड़े उतारे और माँ के सिरहाने बैठकर भागवत की कथा सुनाने लगे। रात को जब बहु भोजन बनाने चली तो सास से घोलो---अम्माजी, तुम्हारे लिए थोक्षा-सा साबूदाना छोड़ दें ? माता ने व्यंग्य करके कहा-बेटी, अन्न बिना न मारो, भला साबूदाना मुम्मसे माया जायेगा। लाओ, थोड़ी पूरियाँ छान लो। पड़े-पड़े जो कुछ इच्छा होगी, खा लूंगी। कचौरियाँ भी बना लेना। मरतो हूँ तो भोजन को तरस-तरस क्यो म। थोड़ों मलाई भी मँगवा लेना, चौक की हो । फिर थोड़ी खाने आऊँगी बेटी। थोड़े-से केले मंगवा लेना, कलेजे के दर्द में केले खाने से आराम होता है। भोजन के समय पीक्षा शांत हो गई, लेकिन आप घण्टे के बाद फिर जोर से होने लगी। आधी रात के समय कहीं जाकर उनको आँख लगी। एक सप्ताह तक उनको यही दशा दी, दिन-भर पड़ी कराहा करतो, बस भोजन के समय जरा वेदना कम हो जाती । दामोदरदत्त सिरहाने बैठे पखा नलवे और मातृ-वियोग के आगत शोक से रोते । घर को महरो ने महल्ले भर में यह खबर फैला दो, पड़ोसिन देखने भाई और सारा इलज़ाम उसी बालिका के सिर मया । एक ने कहा-यह तो कहो, बड़ी कुशल हुई कि बुढ़िया के सिर गई, नहीं तो संतर मां-बाप दो में से एक को लेकर तभी शान्त होती है। वैव न करे कि किसी घर में तेतर का जन्म हो। दूसरी मोली-मेरे तो तेतर का नाम सुनते ही रोएँ खड़े हो जाते हैं। भगवान् बाँझ रखें, पर तेतर न दें। एक सप्ताह के बाद वृद्धा का कष्ट निवारण हुआ, मरने में कोई कसर न थी, वह जो कहो, पुरुक्षाओं का पुण्य-प्रताप था। ब्राह्मणों को गोदान दिया गया। दुर्गा-पाठ हुमा, तब कहीं जाके संकट कटा।
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