११२ मानसरोवर न देखती। यहां तक कि एक दिन वह ही बैठो-~~ लसको का बड़ा छोह करतो हो ? हां भाई, मा हो कि नहीं, तुम न छोह करोगी तो करेगा कौन 'अम्माजी, ईश्वर जानते हैं जो मैं इसे दूध पिलाती होऊँ।' 'अरे, तो मैं मना थोड़े ही करती हूँ, मुझे क्या गरम पड़ी है कि मुफ्त में अपने ऊपर पाप लँ, कुछ मेरे सिर तो जायेगी नहीं।' 'अब आपको विश्वास ही न आये तो कोई क्या करे ?' 'मुझे पागल समझती हो, वह हवा पी-पीकर ऐसी हो रही है ' 'भगवान् क्षाने अम्मा, मुझे तो आप अचरज होता है।' महू ने महुत निर्दोषता जताई किन्तु वृद्धा सास को विश्वास न आया। उसने समझा, यह मेरी शका को निर्मूल समझती है, मानों मुझे इस बच्ची से कोई पैर है। उसके मन में यह भाव अंकुरित होने लगा कि इसे कुछ हो जाय तम यह समझे कि मैं झूठ नहीं कहती थी। वह जिन प्राणियों को अपने प्राणियों से भी प्रिय समझती थी, उन्हीं लोगों की अमंगल कामना करने लगी, केवल इसलिए कि मेरी शकाएँ सत्य हो जायें। वह यह तो नहीं चाहती थी कि कोई मर जाय, पर इतना अवश्य चाहती थी कि किसी बहाने से मैं चेता हूँ कि देखो, तुमने मेरा कहा न माना, यह उसी का फल है। उधर सास की ओर से ज्यों-ज्यों यह द्वेष भाव प्रकट होता था, वहू का कन्या के प्रति स्नेह बढ़ता था। ईश्वर से मनाती रहती थी कि किसी भांति एक साल कुशल से कट जाता तो इनसे पूछती । कुछ लड़को का भोला-भाला चेहरा, कुछ अपने पति का प्रेम-वात्सल्य देखकर भी बसे प्रोत्साहन मिलता था। विचित्र दशा हो रही थी, न दिल खोलकर प्यार हो कर सकतो थी, न सम्पूर्ण रीति से निर्दय होते ही बनता था। न हँसते पनता था, न रोते। इस भौति दो महोने और गुज़र गये और कोई अनिष्ट न हुआ। तब तो वृद्धा सास के पेट में चूहे दौड़ने लगे। यह को दो-चार दिन ज्वर भी नहीं आ जाता कि मेरी शका की मर्यादा रह लाय, पुत्र भी किसी दिन पैरगाड़ी पर से नहीं गिर पहता, न बहू के मैके ही से किसी के स्वर्गवास की सुनावनी आती है। एक दिन कामोदर- दत्त ने खुले तौर पर कह भी दिया कि अम्मां, यह सब ढकोसला है, तेता लकियाँ क्या युनिया में होती ही नहीं, या होती है तो उन सबके मां-बाप मर ही बाते हैं ? अन्त में उसने अपनी शंकाओं को यथार्थ सिद्ध करने की एक तरकीब सोच
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