यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

के एक-एक पेड़-पत्ते से उसे प्रेम हो गया था! जीवन के सुख-दुःख इसी गाँव में भोगे थे। अब अंतिम समय वह इसे कैसे त्याग दे! यह कल्पना ही उसे संकटमय जान पड़ती थी। दूसरे गाँव के सुख से यहाँ का दुःख भी प्यारा था। इस प्रकार एक पूरा महीना गुजर गया। प्रातःकाल था। पंडित उदयभान अपने दो-तीन चपरासियों के लिये लगान वसूल करने जा रहे थे। कारिंदों पर उन्हें विश्वास न था। नजराने में, डाँड-बाँध में, रसूम में वह किसी अन्य व्यक्ति को शरीक न करते थे। बुढ़िया के भाड़ की ओर ताका तो बदन में आग-सी लग गई। उसका पुनरुद्धार हो रहा था। बुढ़िया बड़े वेग से उस पर मिट्टी ले लोंदे रख रही थी। कदाचित उसने कुछ रात रहते ही काम में हाथ लगा दिया था और सूर्योदय से पहले ही उसे समाप्त कर देना चाहती थी। उसे लेशमात्र भी शंका न थी कि मैं जमींदार के विरुद्ध कोई काम कर रही हूँ। क्रोध इतना चिरजीवी हो सकता है इसका समाधान भी उसके मन में न था। एक प्रतिभाशाली पुरुष किसी दीन अबला से इतनी कीना रख सकता है उसे उसका ध्यान भी न था। वह स्वभावतः मानव-चरित्र को इससे कहीं ऊँचा समझती थी। लेकिन हा! हतभागिनी! तूने धूप में बाल सफेद किए। सहसा उदयभान ने गरज कर कहा - किसके हुक्म से? भुनगी के हकबका कर देखा तो सामने जमींदार महोदय खड़े है। उदयभान ने फिर पूछा - किसके हुक्म से बना रही है? भुनगी डरते हुए बोली - सब लोग कहने लगे बना लो, तो बना रही हैं। उदयभान - मैं अभी इसे फिर खुदवा डालूँगा। यह कह कर उन्होंने भाड़ पर एक ठोकर मारी। गीली मिट्टी सब कुछ लिए दिए बैठ गई। दूसरी ठोकर नाँद पर चलाई लेकिन बुढ़िया सामने आ गई और ठोकर उसकी कमर पर पड़ी। अब उसे क्रोध आया। कमर सहलाते हुए बोली - महाराज, तुम्हें आदमी का डर नहीं है तो