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मैंने आर्द्र होकर कहा - जिन कारणों से मेरा साम्यवाद लुप्त हो जाएगा, क्या वह तुम्हारे साम्यवादको जीता छोड़ेगा? लज्जा - हाँ, मुझे पूरा विश्वास है कि मुझ पर उनका जरा भी असर न होगा। मेरे घर में कभी रियासत नहीं रही और कुल की अवस्था तुम भली-भाँति जानते हो। बाबू जी ने केवल अपने अविरल परिश्रम और अध्यवसाय से यह पद प्राप्त किया है। मुझे वह नहीं भूला है जब मेरी माता जीवित थी और बाबू जी 11 बजे रात को प्राइवेट ट्यूशन कर के घर आते थे। तो मुझे रियासत और कुल-गौरव का अभिमान कभी नहीं हो सकता, उसी तरह जैसे तुम्हारे हृदय से यह अभिमान कभी मिट नहीं सकता। यह घमंड मुझे उसी दशा में होगा जब मैं स्मृतिहीन हो जाऊँगी। मैंन उदंतता से कहा - कुल-प्रतिष्ठा को तो मैं मिटा नहीं सकता, मेरे वश की बात नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मैं आज रियासत को तिलांजलि दे सकता हूँ। लज्जा क्रूर मुस्कान से बोली - फिर वही भावुकता! अगर यह बात तुम किसी अबोध बालिका से करते तो कदाचित वह फूली न समाती। मैं एक ऐसे गहन विषय में, जिस पर दो प्राणियों के समस्त जीवन का सुख-दुःख निर्भर है, भावुकता का आश्रय नहीं ले सकती। शादी बनावट नहीं है। परमात्मा साक्षी है मैं विवश हूँ, मुझे अभी तक स्वयं मालूम नहीं है कि मेरी डोंगी किधर जाएगी; लेकिन मैं तुम्हारे जीवन को कंटकमय नहीं बना सकती। मैं यहाँ से चला तो इतना निराश न था जितना संचित। लज्जा ने मेरे सामने एक नई समस्या उपस्थित कर दी थी।