यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

लज्जा - केशव का व्याख्यान सुनने नहीं गए! मेरी आँखों से ज्वाला-सी निकलने लगी। जब्त करके बोला - आज सिर में दर्द हो रहा था। यह कहते-कहते अनायास ही मेरे नेत्रों से आँसू की कई बूंदें टपक पड़ी। मैं अपने शोक को प्रदर्शित करके उसका करुणापात्र बनना नहीं चाहता था। मेरे विचार में रोना स्त्रियों के ही स्वाभावानुसार था। मैं उस पर क्रोध प्रकट करना चाहता था और निकल पड़े आँसू। मन के भाव इच्छा के अधीन नहीं होते। मुझे रोते देखकर लज्जा की आँखों से आँस गिरने लगे। मैं कीना नहीं रखता, मलिन हृदय नहीं हैं, लेकिन न मालूम क्यों लज्जा के रोने पर मुझे इस समय एक आनंद का अनुभव हुआ। उस शोकावस्था में भी मैं उस पर व्यंग्य करने से बाज न रह सका। बोला - लज्जा, मैं तो अपने भाग्य को रोता हूँ। शायद तुम्हारे अन्याय की दुहाई दे रहा हूँ; लेकिन तुम्हारे आँसू क्यों? लज्जा ने मेरी ओर तिरस्कार-भाव से देखा और बोली - मेरे आँसुओं का रहस्य तुम न समझोगे क्योंकि तुमने कभी समझने की चेष्टा नहीं की। तुम मुझे कटु वचन सुना कर अपने चित्त को शांत कर लेते हो। मैं किसे जलाऊँ। तुम्हें क्या मालूम है कि मैंने कितना आगा-पीछा सोचकर, हृदय को कितना दबाकर, कितनी रातें करवटें बदलकर और कितने आँसू बहाकर यह निश्चय किया है। तुम्हारी कुल-प्रतिष्ठा, तुम्हारी रियासत एक दीवार की भाँति मेरे रास्ते में खड़ी है। उस दीवार को मैं पार नहीं कर सकती। मैं जानती हूँ कि इस समय तुम्हें कुलप्रतिष्ठा और रियासत को लेशमात्र भी अभिमान नहीं है। लेकिन यह भी जानती हूँ कि तुम्हारा कालेज की शीतल छाया में पला हुआ साम्यवाद बहुत दिनों तक सांसारिक जीवन की लू और लपट को न सह सकेगा। उस समय तुम अवश्य अपने फैसले पर पछताओगे और कुढ़ोगे। मैं तुम्हारे दूध की मक्खी और हृदय का काँटा बन जाऊँगी।