<––प्रकाशकीय वक्तव्य
हिन्दुस्तानी एकेडेमी ने हिन्दी के अनेक गौरव-ग्रंथों का प्रकाशन उस समय से आरम्भ किया जब इस क्षेत्र में कार्य करने वाली अनेक संस्थाएँ सक्रिय नहीं थीं। जो साहित्य प्रकाशित किया गया, वह विविधात्मक है और साहित्य की प्रायः सभी विधाओं से सम्बद्ध है। वस्तुतः यह श्रद्धेय पण्डित श्रीनारायण चतुर्वेदी की कृपा से सम्भव हो पा रहा है जिन्होंने श्री देबीप्रसाद वर्मा से पाण्डुलिपि प्राप्त करके हिन्दुस्तानी एकेडेमी को उसके प्रकाशन की प्रेरणा दी तथा 'स्पष्टीकरण के दो शब्द' लिखकर कृतार्थ किया। वर्माजी ने भी पूरे उत्तरदायित्व के साथ सप्रेजी की कहानियों का ऐतिहासिक महत्त्व निर्दिष्ट करते हुए अपनी बात कही है। डॉ॰ भालचन्द्र राव तेलंग ने 'अन्तर्भाष्य-समीक्षा' लिखकर वर्माजी द्वारा किये गये संग्रह के महत्त्व को और अधिक रेखांकित किया है तथा प्रत्येक कहानी की मूल संवेदना को भी अलग-अलग प्रस्तुत किया है।
स्वर्गीय पण्डित माधवराव सप्रे (१८७१-१९३१ ई॰) उन हिन्दी-सेवियों में थे जो लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से हिन्दी में आये थे। उनकी मातृभाषा मराठी थी, फिर भी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपना कर उन्होंने हिन्दी की असाधारण सेवा की। वस्तुतः उस काल में एक राष्ट्रीय मण्डल स्थापित था जो लोकमान्य तिलक के क्रांतिकारी विचारों से अनुप्रेरित होकर देश के स्वातंत्र्य-संग्राम में सक्रिय था। गीता-विषयक 'कर्मयोग-रहस्य' जैसा अद्वितीय ग्रंथ लिखकर उन्होंने एक आस्तिक भाव के साथ इस देश को जो प्रेरणा दी, वह गांधीजी के माध्यम से और भी लोकव्याप्त हो गई। सप्रेजी ने मूल मराठी से इसे हिन्दी में अनूदित किया और 'गीता-रहस्य' नाम से इसकी प्रसिद्धि हुई। महाराष्ट्र के गणेशोत्सवों के द्वारा जन-संगठन और स्वातंत्र्य-संघर्ष को जिन लोगों ने बल दिया, उनमें सप्रेजी भी थे। तिलक द्वारा सम्मादित सुविख्यात मराठी पत्र 'केशरी' का जो हिन्दी संस्करण नागपुर से निकाला गया, उसके