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शत्रुओं के साथ लड़ाई में हार कर भाग गया, तब उसके कुटुम्ब के सब लोग तुर्किस्थान ही में रह गये। बादशाह को दुश्मनों ने कतल कर डाला। उसके कुटुम्ब में तुर्किस्थान के कई लोगों से शादियाँ हुईं। मेरा जन्म उसी के वंश में हुआ है। इसलिए अब मैं तुर्क कहलाता हूँ। जिस समय मेरा जन्म हुआ, मेरे माँ-बाप बिलकुल गरीब थे। हर रोज गुजर होना भी मुश्किल था। तिस पर भी मेरे बाप ने मुझे अच्छी तरह से पढ़ाया, अपने धर्म पर विश्वास रखकर नीति का मार्ग दिखलाया और सदैव सदाचरण करने की सुशिक्षा दी, क्योंकि वह स्वयं कुछ लिखना-पढ़ना जानता था और उस शहर में एक बड़ा विद्वान् और सद्गुणी मनुष्य गिना जाता था। युद्ध करना, शिकार खेलना, घोड़े पर सवार होना, हथियार चलाना, आदि वीर पुरुष के योग्य कई उत्तम-उत्तम गुण सीखने का भी मुझे मौका मिला। मैं समझता हूँ कि मेरी शिक्षा राजदरबार में जो कई सरदारों के पुत्र हैं, उनसे यदि अधिक नहीं तो कम भी न होगी। न मालूम क्यों छुटपन ही से मेरे मन की ऐसी भावना हो गई थी कि मैं जन्म भर यों ही गरीब न बना रहूँगा, कभी-न-कभी मुझसे जरूर कोई बड़ा भारी काम होने वाला है। बस इसी कल्पना के जोश में अपनी उमर के उन्नीसवें बरस घर छोड़ बाहर निकल पड़ा। गजनी के लश्कर में पहुँच सिपाहियों में भरती होने के इरादे से गाँव-गाँव, जंगल-जंगल घूमता हुआ चला आया था कि दुर्भाग्य से एक घने बन में डाकुओं से गाँठ पड़ गई। वे आठ आदमी थे। मुझे अकेला देख, हाथ-पैर बाँध कर अपने घर ले गये और हर एक तरह की तकलीफ देने लगे। कुछ दिन पीछे एक व्यापारी के पास मुझे बेच दिया। वहाँ जो दुख मुझे सहना पड़ा, वह कहने के लायक नहीं है। लेकिन यह उस परमेश्वर की ही कृपा हुई कि हुजूर का गुलाम होकर यहाँ आ पहुँचा।"
पथिक की यह वार्ता सुनकर अलप्तगीन बहुत प्रसन्न हुआ और