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हो पायेंगे। मैं ज़ोर देकर कहना चाहूँगा कि वाक़ई नई कहानी का पक्षधर होना कोई समीक्षा-सिद्धान्त नहीं है, परन्तु वास्तविकता को जानबूझ कर ओझल करना कौन-सी आलोचना के अन्तर्गत आयेगा?

डॉ॰ सिंह का दूसरा आरोप कि सातवें दशक की कहानी का बीज या डॉ॰ धनंजय के अनुसार सातवें दशक के नज़दीक मानने से 'एक टोकरी भर मिट्टी' कहानी ऐतिहासिक संदर्भ से च्युत हो जाती है। यदि इसे परिभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाय, तो सारे इतिहास को पुनः लिखना पड़ेगा। एक उदाहरण लीजिए––श्री दिनकर ने घनानंद की एक कविता "धरती में धसौं कि आकाश चीरौं" की चर्चा करते हुए कहा है कि घनानंद का एक पैर रीतिकाल में था और दूसरा पैर छायावाद को पार कर आधुनिक युग में था।

––'रीतिकाल : नया मूल्यांकन', ज्योत्सना मासिक,

रीतिकालीन विशेषांक।

अतएव डॉ॰ सिंह की परिभाषा के अनुसार घनानंद अब द्विवेदी-युग के कवि हो गए। ऐसी परिभाषा देने वाले को क्या कहा जाये?

इससे भी रोचक बात उन्होंने और कही है––अपने समय की कहानियों से मेल न खाने के कारण यह सिद्ध होता है कि यह अनुवाद है। पिछले दशक में कहानी, अकहानी, कस्बे या मलवे की कहानी, आदि नामों के साथ जो कहानियाँ आईं, अब उन्हें डॉ॰ सिंह अनुवाद घोषित कर सकते हैं और उन सभी लेखकों को खारिज कर सकते हैं। ठीक इसी प्रकार डॉ॰ जगदीश गुप्त ने सनातन "सूर्योदयी कविता" से "आँख कविता" तक ४५ काव्य-विधाओं की चर्चा की है[] जो अपने समय की कविताओं से अलग थीं, इस कारण अलग नाम से आईं। अस्तु, डॉ॰ सिंह उन सब को अनुवाद घोषित कर सकते हैं, क्योंकि उनकी परिभाषा की बुनियाद ही है 'मैं कह रहा हूँ और फरमाते हैं...'। संक्षिप्तता

  1. 'नयी कविता', भाग ८ : 'नयी कविता : किसिम-किसिम की कविता' के संदर्भ में आपके विचार देखिए।