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संदर्भ अपना है। पूरी सिचुवेशन को जिस तटस्थता से इसमें निर्मित किया गया है, वह इसे सातवें दशक की कहानी के नज़दीक ला देती है। कहानी का गठन जटिल न होते हुए भी असाधारण है। मानवीय संबंधों को भी बड़ी सूक्ष्मता से उभारा गया है। ये तमाम बातें इस कहानी को उस समय की कहानियों से अलग और विशिष्ट बनाती हैं। 'इंदुमती' में ऐसा कुछ भी नया नहीं है जिसे आज के कहानी के स्तर पर रेखांकित किया जा सके। इसलिए सप्रेजी की कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी' ही हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी हो सकती है।
'सारिका' में ही सन् १९७७ में डॉ॰ बच्चन सिंह ने पुनः इसी प्रश्न को उठाया और उन्होंने एक नयी बात कहने का प्रयत्न किया कि किशोरीलाल गोस्वामी-कृत 'प्रणयिनी-परिणय' उपन्यास नहीं, कहानी है। इस संदर्भ में क्योंकि बार-बार विवाद उठाया जाता है, इस कारण मैं डॉ॰ बच्चन सिंह के उक्त कथन पर अपने विचार रखना आवश्यक समझ रहा हूँ––'एक टोकरी भर मिट्टी' को प्रथम कहानी न कहकर 'प्रणयिनी-परिणय' को कहना कहाँ तक उचित है?
सन् १९६८ में 'सारिका मासिक' में प्रकाशित मेरे लेख 'हिन्दी की पहली कहानी' का उद्धरण देते हुए डॉ॰ बच्चन सिंह ने 'सारिका पाक्षिक' में कहा है––"आज कहानी...के साथ-साथ एक कहानी और चलती है। वह मानवीय, पर शांति की गाथा है। वह कहानी जो ऊपर है, वह भी अपनी अभिव्यक्ति, परिवेश और अंचल में नयी है।" (कमलेश्वर––नई कहानी की भूमिका)। नई कहानी के सबल पक्षधर कमलेश्वर की वाणी किसी सीमा तक प्रस्तुत कहानी में मिलती है।
पहले तर्क में कमलेश्वर का नई कहानी का पक्षधर होना कोई समीक्षा-सिद्धान्त नहीं है जिसके आधार पर उस कहानी को कसा जा सके। यदि डॉ॰ सिंह कृपापूर्वक इस पंक्ति को दुबारा पढ़ें––आज कहानी के साथ-साथ एक और कहानी चलती है––और फिर 'एक टोकरी भर मिट्टी' को कसें तो वे मानवीय परिणति के बहाने सही तथ्य से विलग न