(२१)
प्रयत्नों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है––
जनवरी सन् १९०० में 'सुभाषित-रत्न' शीर्षक कहानी छपी जिस में अपने कथानक को प्रमाणित एवं बल प्रदान करने के लिए संस्कृत श्लोकों का चयन किया गया है। कथानक पूर्णतः स्वतन्त्र है। इस कहानी का अन्त कितने मार्मिक ढंग से किया गया है––
"इस पृथ्वी में अन्न, जल और सुभाषित––ये तीन ही मुख्य रत्न हैं। मूर्ख लोग हीरा, माणिक, आदि पत्थर के टुकड़े को रत्न कहते हैं। यह सुनकर श्रीमान गृहस्थ अपने मन में बहुत लज्जित हुआ।" विषयान्तर न होगा यदि मैं यह कहूँ कि सप्रेजी के आदर्श कहानी के क्षेत्र में भामह के सिद्धान्त के अनुयायी थे जिसे किसी हद तक हम आज के उपयोगितावाद से जोड़ सकते हैं।
––"पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि गृहमन्नं सुभाषितम्॥"
आगे चलकर इस शीर्षक पर छोटी-छोटी कहानियाँ संस्कृत श्लोकों के साथ उन्होंने लिखीं जिसे लघुकथा का सफल प्रयास ही कहा जायेगा। पर, ये कहानियाँ संस्कृत श्लोकों के आधार पर लिखी गई हैं या संस्कृत कथाओं की प्रतिछाया मात्र हैं––सम्भवतः यही कारण था कि सप्रेजी ने कहानी को 'सुभाषित-रत्न' शीर्षक देना बन्द कर दिया।
उस समय अनुवादों का प्रभाव कहानियों पर काफ़ी अधिक देखने में आता है। लम्बी कहानियाँ, जासूसी कहानियाँ ज्यादा प्रचलित थीं। सप्रेजी ने उस दिशा में भी प्रयत्न किया और मार्च-अप्रैल के अंक में 'एक पथिक का स्वप्न' नामक कहानी लिखी जो कि १८ पृष्ठों में समाप्त हुई है तथा उसे तीन भागों में विभाजित कर प्रकाशित किया गया है। इस कहानी को यदि किशोरीलाल जी की 'इन्दुमती' के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो अनायास ही कहना पड़ेगा कि क़रीब-क़रीब वैसी ही कहानी सप्रेजी ने न केवल भारतीय वातावरण में दी, अपितु इस कहानी को ऐतिहासिक कहानी की संज्ञा के साथ प्रस्तुत किया। पाद-