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भाषा व्यावहारिक है तथा 'बासी भात, सेंतमेत, ब्यारी, अधारी, ऐन' जैसे आंचलिक शब्दों से युक्त है तथा चरितार्थ, संभावना, इन्द्रभुवन, सर्वसाक्षित्व, यःकश्चित्, सहवास, शिरसामान्य, हृदय-विचार, हस्तगत आदि शब्दों का प्रयोग भी यहाँ उल्लेखनीय है।
हाँ, डॉ॰ धनंजय इस 'एक टोकरी भर मिट्टी' को 'ऐतिहासिक सन्दर्भ से च्युत हो जाती है' के दोष से उसे उसके स्तर से उतार देना चाहते हैं। इसकी मौलिकता पर यह कहकर भी संदेह उठाया जाता है कि 'यह नौशेरवाँ का इंसाफ का रूपान्तर है।' यहाँ सप्रेजी का 'एक पथिक का स्वप्न' के समान किसी ऐतिहासिक व्यक्ति का नाम उल्लिखित नहीं है जिससे कहानीकार की किसी ऐसी प्रेरणा का पता चलता हो। कहानी का कलेवर भी ऐसा कोई संकेत नहीं देता। यहाँ तो विधवा अन्याय और अत्याचारों की शिकार है। यहाँ न बागेदाद (न्याय के बाग) में न्याय या न्यायप्रियता का संदर्भ है और न 'ईवाने कस्रा' की निर्मिति। यहाँ तो 'एक टोकरी भर मिट्टी' के भार का वह सेन्द्रिय बोध कहानीकार को इष्ट है जिससे धनमद का लोप, कर्त्तव्य की प्रेरणा के साथ पश्चात्ताप और क्षमा के रंग निखरते हैं। यदि गुलिस्तान के 'ज़िन्दस्ते नामे फ़र्रुख़े नौशेरवाँ व अद्ल' को जायसी के शब्दों में 'नौसेरवाँ जो आदिल कहा' कह दिया जाय तो कौन-सी ऐतिहासिक च्युति होती है? क्या कहानी के तन्त्र में अपनी सीमा का विस्तार करने की सहज वृत्ति को नौशेरवाँ ही समझा जायगा?