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कर यह कहना शुरू कर दिया कि 'अपने घर चल, वहीं रोटी खाऊँगी' उसके लिए समस्या बन गई। वह अब सोचती है कि उस झोंपड़ी की टोकरी भर मिट्टी से यदि चूल्हा तैयार कर रोटी पकाऊँगी तो शायद बच्ची रोटी खाने लगे। श्रीमान् की आज्ञा मिलने पर वह जब उस झोंपड़ी में जाती है तो सारी भूली स्मृतियाँ पुनः जाग जाती हैं और उसकी आँखों से आँसुओं की धार लग जाती है। पाठक भी करुण भाव से उत्तेजित हो जाते हैं। संवेदना को कोमल आधार मिल जाता है। अपनी टोकरी को जब वह झोंपडी की मिट्टी से भर लेती है, तब वह महाराजा से विनय करती है कि जरा वह हाथ लगाकर उस टोकरी भर माटी को अपने निर्बल सिर पर रख लेने में मदद करें। पाठकों का सारा ध्यान अब उस विधवा की टोकरी पर केन्द्रित हो जाता है। सहानुभूति के साथ संवेदना को गति मिलती है और पाठक देखते हैं कि वह उस झोंपड़ी की मिट्टी-भरी टोकरी अपने स्थान से ऊँची नहीं उठती। सहृदय की कल्पना को समझने में देर नहीं, भावुकता के इस क्षण में विधवा के ये शब्द सुनाई पड़ते हैं––'महाराज, नाराज न हों, आपसे तो एक टोकरी भर माटी उठाई नहीं जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है, इसका भार आप जनम भर क्यों कर उठा सकेंगे? आप ही इस बात का विचार कीजिए।' चरित्र की भंगिमा को अवकाश मिला और जमींदार के हृदय में सत्त्वोद्रेक जागा। कहानी को पुनः गति मिली। शीर्षक 'एक टोकरी भर मिट्टी' के भार को सेन्द्रिय बोध मिला और कहानी का अन्त सामने आ गया। कृतकर्म का पश्चात्ताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापस दे दी। विधवा का अर्थपूर्ण मौन 'एक टोकरी भर मिट्टी' के सूक्ष्म इंगिति-संवाद से कहीं अधिक मुखर है। कहानी के रचना-विधान में ऐसा कौशल इसके पूर्व हमें तो दिखाई नहीं पड़ा। संवेदनाशील भावना का समुदय तथा मानवीय दायित्व को रूपायित करने की परिकल्पना स्वर्गीय श्री माधवराव सप्रे की इसी कहानी में मिलती है।