डॉ॰ भालचन्द्र राव तेलंग
बीसवीं शताब्दी से आरम्भ होने वाली हिन्दी की कहानियों की कथायात्रा 'सरस्वती' में प्रकाशित मौलिक कहानियों से मानी गयी है, परन्तु रायपुर से प्रकाशित सन् १९०० से लेकर अप्रैल, सन् १९०१ तक के 'छत्तीसगढ़मित्र' के पांच अंकों में छपी स्वर्गीय माधवराव सप्रे की प्रस्थान-बिन्दु पर खड़ी इन छह कहानियों का कोई लेखा-जोखा अब तक प्राप्त नहीं हो सका। प्रतिभा के धनी माधवराव सप्रे की कहानी-विधि, कहानी-विधा तथा कहानी का रचना-विधान, तीनों प्रेरणादायक हैं। उनकी कथाविधि साभिप्राय, सोद्देश्य तथा गतिशील है।
विवेच्य इन छह कहानियों में प्रथम दो सुभाषित-रत्न हैं और वे भूमिका के रूप में ग्राह्य हैं। आचार्य भामह ने अपनी काव्य की पंचधा में कथा को चतुर्थ स्थान दिया है। सप्रेजी द्वारा कहानी को सुभाषित-रत्न कहने का आधार भी यही है। सुभाषित की धातु 'भाष्' कहानी की धातु 'कथ्' का ही तो पर्याय है। सुभाषित कहने से कहानी के निबन्धन, अर्थात् रचना तथा निषेवण, अर्थात् उस रचना के श्रवण से है। कहानी का कहानीपन भी यही है। काव्य-निबन्धन तथा काव्य-निषेवण के साधुत्व को वे सुभाषित-रत्नों में समझाते हैं। प्रथम सुभाषित-रत्न में वे पाँच सुभाषित श्लोकों द्वारा अभिजात गुण, दोष-त्याज्यता, व्यवहार-ज्ञान, उदात्तता तथा शब्द-चयन की वांछनीयता की ओर संकेत करते हैं। दूसरे सुभाषित-रत्न में वे लक्ष्मी-सरस्वती की कथा द्वारा 'रत्न' की आकारलघुता को पृथ्वी पर प्राप्त जल, अन्न के ही समान सुभाषित की उपयोगिता से जोड़ देते हैं। संस्कृत श्लोकों से कथानक की आपूर्ति करते हुए सप्रेजी कहानी की विधा को काव्य की अन्य विधाओं से समन्वित रखने का प्रथम प्रयोगात्मक प्रयास करते हैं।