(९)
नहीं होने देती। फिर भी, जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, वर्षों से लेकर दशकों तक पीछे पड़े रहने से कुछ ग्रन्थों के प्रकाशन में सफलता मिल जाती है। इस संग्रह को मैंने पहले एक हिन्दी संस्था से (जो वास्तव में 'सरकारी' है) छपाने का प्रयत्न किया, किन्तु वहाँ असफल होने पर मैंने इलाहाबाद की हिन्दुस्तानी एकेडेमी का द्वार खटखटाया।
कई अनिवार्य और अप्रत्याशित कारणों से कुछ समय अवश्य लगा, किन्तु एकेडेमी के साहित्य-प्रेमी, निदग्ध और कल्पनाशील अधिकारियों ने सप्रेजी के महान् व्यक्त्वि और उनके द्वारा इस विधा के प्रयोग का ऐतिहासिक महत्त्व समझा, और उनकी कृपा से सप्रेजी के प्रायः विस्मृत साहित्य की एक अनमोल कड़ी हिन्दी साहित्य-निधि को प्राप्त हो रही है।
श्री तेलंग और श्री वर्मा की विस्तृत और सारगर्भित भूमिकाओं के बाद मेरी भूमिका एकदम “अजागलस्तनश्चैव” निरर्थक है। किन्तु एकेडेमी और वर्माजी द्वारा इस 'गोवर्धन' पर्वत उठाने में, मैं भी ब्रज के बालगोपालों की तरह अपनी भूमिका-रूपी लाठी लगाकर उन भोले ब्रजवासियों की तरह ही मानो यह मूर्खतापूर्ण अनुभव कर रहा हूँ कि मेरी लाठी ने इस गोवर्धन का बहुत कुछ भार सँभाल रखा है।
मैं श्री वर्मा को उनके परिश्रम, श्री तेलंग को उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका और हिन्दुस्तान एकेडेमी को मेरा निवेदन और सुझाव स्वीकार करने के लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
श्रीनारायण चतुर्वेदी