पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/९९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नेपाल /95 चढ़ाई में उन्हें बहुत हानि उठानी पड़ी और अनेक आपदाओं का सामना करना पड़ा। तभी से नेपाल वाले चीन को कर देने लगे। यह कर उन्हें अब तक देना पड़ता है। उस उस समय तिब्बत वालों ने भी अंगरेजों से मदद मांगी थी और नेपाल वालों ने भी; पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मदद नही दी। यदि देती तो इम समय नेपाल और तिब्बत की हालन और की और ही हो गई होती। नेपाल की राजगद्दी के कारण अनेक बार मार- काट हुई है । सच पूछिए तो मन्त्री ही वहाँ का राजा है। इसलिए मन्त्री होने के लिए अनेक खून-खराबियाँ हुई हैं और कितने ही लोगों को देश छोड़ कर हिन्दुस्तान में भाग आना पड़ा है। गीर्वाण युद्ध विक्रम शाह के समय में गोर्खा लोगों ने फिर नेपाल की सीमा को बढाना आरम्भ किया। पश्चिम में वे काँगड़ा तक पहुंच गये और पूर्व में सिकम तक । उन्होंने अंगरेजी राज्य पर भी आक्रमण किया। इसका फल यह हुआ कि 1814 ईमवी में नेपाल के साथ अँगरेजों का युद्ध ठन गया। इस युद्ध में पहले अंगरेजों को बहुत तकलीफें उठानी पड़ीं। उनकी सेना का भी बहुत नाश हुआ और उनके कई बडे-बड़े अफ़सर भी मर गये। पर पीछे से उनकी कामयाबी हुई और अंगरेजो का जितना देश नेपालियों ने जीता था उसमें से बहुत-सा उन्होंने लौटा दिया। नेपाल के साथ अँगरेज़ों की पहले दो-तीन सन्धियाँ हो चुकी थीं। पर वे नाम मात्र ही के लिये थीं। जब नेपाल के माथ अँगरेजों की लड़ाई हुई तब नेपालियो को अँगरेज़ों का बल विक्रम अच्छी तरह मालूम हो गया। तब, 1816 ईमवी में, चौथी बार मन्धि हुई। इम सन्धि का नाम सिगौली की सन्धि है। तब से अँगरेजी गवर्नमेन्ट की तरफ से रेजिडेण्ट मुस्तकिल तौर पर काठमाण्डू मे रहने लगा। उस समय नेपाल-नरेश के मन्त्री जनरल भीमसेन पापा थे। उन्होंने 25 वर्ष तक काम किया। 1837 ईसवी में उन पर यह अपराध लगाया गया कि उन्होंने राजा के एक छोटे बच्चे को विष दिया । इमलिए वे कैद किये गये और कंद ही मे उन्होने अपना आत्मघात किया। सुनते हैं, इनके मृतक शरीर की बडी दुर्दशा की गई थी। भीमसेन थापा के बाद कालापांडे को नेपाल नरेश का मन्त्रित्व मिला। उनका राज्य-प्रबन्ध अच्छा न था। 1843 ईसवी में उनको मातबरसिह नामक एक योद्धा ने मार डाला और आप मन्त्री हो गया। परन्तु दो ही वर्ष में उसका भी काम तमाम कर दिया गया। वह राजा से मिलने गया था। वहीं उस पर किसी ने गोली चलाई। कोई कहता है, खुद राजा ने चलाई, कोई कहता है जंगबहादुर ने । जंगबहादुर एक बहुत ही होनहार और साहसी युवा थे। उस समय वे फ़ौज में कर्नल पद पर थे । मातबरसिह के मारे जाने पर उन्होंने राज्य कार्य देखना शुरू किया। पर मन्त्रित्व उनको न मिला। वह गगनसिंह नामक एक पुरुष को मिला । परन्तु एक ही वर्ष बाद उनके जीवन की भी समाप्ति हो गई। 14 सितम्बर 1846 की शाम को यह घटना हुई। उन पर नेपाल की महारानी की कृपा थी। इसलिए उनके वधिक का पता लगाने के लिए सब सरदार राजमहल में बुलाये गये । वहाँ जंगबहादुर भी उपस्थित थे। बातों-बातों में झगड़ा हुआ और गोलियां चलने लगीं। जरा देर में नेपाल के 31 1