पुराने अंगरेज़ अधिकारियों के संस्कृत पढ़ने का फल / 57 एक प्रकार के आतंक का ठिकाना न रहा। अरे इन वहशी हिन्दुस्तानियो की प्राचीन भाषा क्या किसी समय हमारे भी पूर्व पुरुषो की भाषा थी ! बस फिर क्या था, योरप के कितने ही पण्डित काव्य, नाटक, इतिहास, धर्म- शास्त्र आदि का अध्ययन जी लगाकर करने लगे। जर्मनी के वान शेलीजल और वान हम्बोल आदि प्रकाण्ड पण्डितों ने बड़ी ही मरगरमी मे संस्कृत सीखना शुरू किया । जब इन लोगों को वेद पढ़ने और समझने की शक्ति हो गई तब इन्होंने अपना अधिक समय वैदिक ग्रन्थों ही के परिशीलन में लगाना आरम्भ किया। इससे उनकी आँखें खुल गई । संस्कृत-शिक्षा का प्रचार इंगलिस्तान और जर्मनी के सिवा फ्रांस, हालैंड, अमेरिका और रूस तक में होने लगा। वैदिक ग्रन्थों को इन विद्वानो ने एक स्वर से दुनिया के सब ग्रन्यों से पुराना माना और उनके सम्बन्ध में नाना प्रकार की चर्चा आरम्भ हो गई। तब से आज ना योग्प में कितने ही विद्वान् ऐसे हो गये हैं और कितने ही होते जा रहे हैं जिनकी कृपा से संस्कृत-माहित्य के नये-नये रत्न हम लोगो को प्राप्त हुए है और अब तक प्राप्त होते जाते है। अँगरेज अधिकारियों ने सस्कृत सीखने की ओर ध्यान तो अपने स्वार्थसाधन के लिए दिया था-उन्होंने तो इमलिए पहले-पहल सस्कृत मीखने की जरूरत समझी थी, जिसमें हम लोगो की रीति-रस्में आदि जानकर भारत पर बिना विघ्न-बाधा के शासन -पर संस्कृत-साहित्य की श्रेष्ठता ने उन लोगों को भी उसका अध्ययन करने के लिए लाचार किया जिनका शासन से क्या, इस देश मे भी, कुछ सम्बन्ध न था । यदि योग्पवाले संस्कृत की कदर न करते तो हजारो अनमोल ग्रन्थ यही कीड़ो की बराक हो जाते। जर्मनी, फ्राम, इगलैड आदि के पुस्तकालयों मे क्या वे पहुँचते और क्यों प्रतिवर्ष नये नये ग्रन्थो का पता लगाया जाता ? आज तक योरप के विद्वानो ने जो अनेकानेक अलभ्य ग्रन्थ प्रकाशित किये है, अनेकानेक वादक रहस्यो का उद्धाटन किया है. हमारे और अपने पूर्वजों के किसी समय एकत्र एक ही जगह रहने और एक ही भाषा बोलने के विषय में जो प्रमाणपूर्ण अनेकानेक पुस्तकें लिट्टी है उसके लिए भारतवासी उनके बहुत कृतज्ञ हैं । यदि हमारी देववाणी मस्कृत की महिमा से आकृष्ट होकर योग के विद्या-व्यमनी जन उमका परिणीलन न करते तो भारत राजा और प्रजा के बीच इस ममय जैसा भाव है, शायद वैमा कभी न होता । बह्न मम्भव है, पूर्ववत् हम लोग पणुओं ही की तरह लाठी से हाँके जाते । अतएव हम लोग अँगरेज कर्मचारी, योरप के विद्वान्, मस्कृत भाषा और महाकवि कालिदास के बहुत ऋणी है । विशेष कर कालिदास ही की बदौलत हमारी सभ्यता और विद्वत्ता का हाल यूरपवालो को मालूम हुआ है। हमारा धर्म है कि हम कालिदास की पूजा करे और प्रेमपूर्वक संस्कृत सोखें । कर सकें- [फरवरी, 1909 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'साहित्य-सीकर' में संकलित।
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