48 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली - कलकत्ते आये । वहाँ आकर उन्होंने थोड़ी-सी हिन्दी सीखी। उसकी मदद से वे अपने नौकरों से किसी तरह बातचीत करने लगे। उसके बाद उन्हें संस्कृत सीखने की इच्छा हुई। इससे वे एक पंडित की तलाश मे लगे। पर पंडित उन्हें कैसे मिल सकता था ? वह आजकल का जमाना तो था नही । एक भी ब्राह्मण वेद और शास्त्र की पवित्र संस्कृत भाषा एक यवन को सिखाने पर राजी न हुआ। कृष्णनगर के महाराज शिवचंद्र सर विलियम के मित्र थे। उन्होने भी बहुत कोशिश की, पर व्यर्थ । यवन को संस्कृत-शिक्षा ! शिव-गिव | सर विलियम ने बहुत बड़ी तनख्वाह का भी लालच दिया। पर उनका यह प्रयत्न भी निष्फल हुआ। लालच के नारे दो-एक पंडित मर विलियम के यहाँ पधारे भी और इसका निश्चय करना चाहा कि यदि वे उन्हें सस्कृत पढ़ावें तो क्या तनख्वाह मिलेगी ? पर जब यह बात उनके पड़ोसियो ने सुनी तब उनके तलवो की आग मस्तक नक जा पहुँची । तुम यवनो के हाथ हमारी परम पवित्र देववाणी बेचोगे ! अच्छी बात है, तुम बिरादरी से खारिज । तुम्हारा जलग्रहण बन्द । वन, फिर क्या था, उनका सारा साहस काफूर हो गया। फिर उन्होंने सर विलियम के बंगले के अहाते मे कदम नही ग्क्वा । अव क्या किया जाय । र, कलकत्ते मे न मही, और कही कोई पण्डिन मिल जाय तो अच्छा। यह समझकर मर विलियम संस्कृत के प्रधान पीठ नवद्वीप को गये । वहां भी उन्होंने बहुत कोणिण की, परन्तु किसी ने उन्हे संस्कृत शिक्षा देना अगीकार न किया । मूंड़ मारकर वहाँ से भी लौट आये। इस नाकामयाबी और ना उम्मेदी पर भी मर विलियम जोन्स ने रगड़ नहीं छोड़ी। पण्डित की तलाश में वे बराबर बने ही रहे । अन्त में ब्राह्मण तो नही, वैद्य जाति के एक संस्कृतज्ञ ने, 100 रूपये महीने पर, आपको पढ़ाना मजूर किया । इम पण्डित का नाम था रामलोचन कवि-भूपण । ये पण्डित महाराज संसार में अकेले ही थे । न स्त्री थी, न सन्तति । हाबडा के पास मलकिया मे आप रहते थे। किमी से कुछ सरोकार न रखते थे। सवमे अलग रहते थे । इसी से आपको जाति या समाज के बहिष्कार का डर न था। पण्डिन महाशय वैद्य-विद्या भी जानते थे । पास-पड़ोस के लोग चिकित्सा कराने आपको अक्मर बुलाते थे। कभी-कभी इनके रोगी अच्छे भी हो जाते थे। इससे इन्होने अपने मन मे कहा कि यदि हम इस यवन को संस्कृत पढ़ायेगे तो भी हमारे टोले महल्ले के लोग हमें न छोड़ सकेंगे । जब कोई बीमार होगा, लाचार होकर उन्हे हमी को बुलाना पड़ेगा। क्योकि और कोई वैद्य यहाँ है ही नही । इसी से इन्हे सर विलियम जोन्स को पढ़ाने का साह्म हुआ। एक तो 100 रुपये महीने तनख्वाह, फिर सलकिया से चौरंगी तक रोज़ आने-जाने के लिए मुफ्त में पालकी की सवारी । याद रहे उस समय पालकी की सवारी के लिए महीने में 30 रुपये से कम न ख़र्च होते थे। अतएव अपना सब तरह से फायदा समझकर रामलोचन ने सर विलियम को पढ़ाने का निश्चय किया। कवि भूपणजी ने सर विलियम जोन्स के माथ बड़ी-बड़ी शर्ते की । पर सर विलियम इतने उदार हृदय थे कि उन्होंने सब गों को मंजूर कर लिया। उनके बँगले के नीचे के खण्ड का एक कमरा पढ़ाने के लिए पसन्द किया गया। उसके फ़र्श में संगमरमर म.द्वि.र..4 1
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