.478/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली - क्रान्ति उत्पन्न की उनमें जर्मनी के मार्टिन लूथर का नाम बहुत प्रसिद्ध है । उसने एक ग्रन्थ प्रकाशित किया जिसमें उस समय के प्रचलित धर्म तथा धर्माधिकारियों के अनाचारों की कड़ी आलोचना की गई । लूथर के उपदेश से सब लोगों की आँखें खुल गई। वे अपनी मूढावस्था से जाग कर सत्य धर्म का प्रचार करने तथा पोप द्वारा प्रचलित मिथ्या धर्म का प्रतीकार करने को तैयार हो गये । पोप को यह बात अच्छी न लगी। उसने देखा कि अब हमारा सारा अधिकार और वैभव नष्ट हो जायगा । तब उसने जर्मनी के बादशाह की सहायता से एक वृहत् धर्म-सभा की और लूथर को वहाँ उपस्थित होने के लिए आज्ञापत्र भेजा । बहुत लोगों ने लूथर को सभा में न जाने की सलाह दी, क्योंकि वहाँ उसके मारे जाने का भय था, परन्तु उस सत्यनिष्ठ महात्मा ने किसी की न सुनी। जब वह सभा में गया तब अनेक धर्माधिकारियों, राजाओं और मित्रो ने उसको समझाया कि तुम अपने नूतन धाम्मिक मतों का त्याग कर दो और पोप की सत्ता का व्यर्थ विरोध मत करो। परन्तु उसके अन्तःकरण में परमेश्वर के शुद्ध ज्ञान की ज्योति प्रकाशित हो रही थी; वह अपने मानव-बन्धुओं को मिथ्या धर्म के अत्याचार तथा दासत्व से मुक्त करने ही के लिए अवतीर्ण हुआ था। वह एक परमेश्वर की सत्ता के सिवा और किसी की मत्ता से क्यों डरता ! उमने निर्भय होकर अपने नूतन मतो का मण्डन किया। पोप की आज्ञा से जर्मनी के बादशाह ने लूथर को अपने देश से निकाल दिया और यह हुक्म जारी किया कि कोई भी उसकी सहायता न करे । लूथर ने पोप तथा बादशाह के आज्ञापत्रों को, अपने विश्वविद्यालय में, धाम्मिक शिक्षा देते समय, आग में जला कर भस्म कर दिया ! इसी समय से लूथर के अनुयायियों की संख्या धड़ाधड़ बढ़ने लगी। जिस तरह सूखी घास का बड़ा भारी पर्वत आग की एक चिनगारी से जल कर भस्म हो जाता है, उसी तरह पोप तथा उसके धर्माधिकारी की अन्यायी, अनाचारी और अज्ञान तथा स्वार्थ की नींव पर बनी हुई धाम्मिक और सामाजिक सत्ता की पुरानी इमारत, सत्य, धर्म-ज्ञान के प्रचण्ड तेज से, जल गई । इस धाम्मिक परिवर्तन मे योरप के विद्वानों ने विशेष सहायता की । इन लोगों ने प्राचीन और मृत-भाषा में लिखे हुए धाम्मिक ग्रन्थों का अनुवाद सर्वसाधारण लोगो की मातृ-भाषा में प्रकाशित किया। ईसाइयों के प्रधान धाम्मिक ग्रन्थ बाइबल का भी अनुवाद प्रचलित देश-भाषाओं में किया गया। इन अनुवाद ग्रन्थों के प्रकाशित होते ही पोप द्वारा प्रचलित धर्म के भ्रम की सारी कलई खुल गई। लोगो का विश्वास हो गया कि धर्म के कार्य में, ईश्वर की प्राप्ति के लिए, पाप का क्षय करने के लिए, सदाचार से रहने के लिए और आत्मोन्नति के लिए किसी पोप या उसके अधिकारी की कोई आवश्यकता नहीं । इस परिवर्तित धर्म के अनुयायियों को प्रोटेस्टेन्ट और पोप के अनुयायियों को केथोलिक कहते हैं । धीरे धीरे इस प्रोटेस्टेन्ट (नूतन अथवा परिवर्तित) धर्म के मतों का उन्नति- कारक प्रवाह यूरोप के सभी देशों में बहने लगा। इंगलैंड, स्काटलैंड और आयरलैंड में भी इन मतों का प्रभाव जोर से बढ़ने लगा। हजारों लाखों मनुष्य रोमन कैथलिक धर्म की अज्ञानवर्धक, पापमूलक तथा हानिकारक पत्ता से मुक्त होने लगे। धाम्मि क क्रान्ति- कारों की जीत हुई और यूरोपनिवासी अपनी बुद्धि, व्यवहार, आचार, राजकाज आदि
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