452 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली और ईश्वर के सम्बन्ध में लोगों की बुद्धि अनेक प्रकार की भ्रमोत्पादक कल्पनाओं से आच्छादित हो गई। जिस देश के परोपकारी ऋषियों और मुनियों ने धर्म, नीति ओर ईश्वर के सम्बन्ध में सारी दुनिया को चकित करने वाले सिद्धान्त निर्माण किये उसी देश में इधर सैकड़ों वर्ष से अविद्या और अज्ञान का साम्राज्य फैला हुआ देखकर किस विचारशील मनुष्य का हृदय खेद और शोक से कम्पित न होगा? पन्द्रहवीं सदी में पूर्वी यूरोप में राज्य-क्रान्ति हुई और वहाँ, रोमन राज्य के जीर्ण, जर्जर तथा आपद्ग्रस्त हो जाने के कारण, तुर्क लोगों ने अपनी सत्ता स्थापित की । तुर्की शासनकर्ताओं के हृदय में ग्रीस या रोम की प्राचीन विद्या के सम्बन्ध में कुछ सहानुभूति न थी। सिर्फ इतना ही नही, किन्तु उनके शासन-समय में प्राचीन विद्याभिमानी पण्डितों को बहुत कष्ट सहना पड़ा। तुर्की शासन के पहले, पूर्वी यूरोप में, ग्रीस और रोम की प्राचीन विद्या किसी प्रकार जीवित थी; परन्तु अब वहाँ भी सुरक्षित न रह सकी । अतएव उस विद्या की रक्षा करने वाले पण्डित, अपनी विद्या और प्राचीन ग्रन्थ लेकर, यूरोप के मध्य, दक्षिण और पश्चिम भागो में चले गये। वहाँ कुछ विद्वानो और राज-पुरुषो ने उन लोगो का मत्कार किया और प्राचीन विद्या को अपना उदार आश्रय दिया। उम समय सूक्ष्म विचार करने वाले ज्ञानवान् जनों को यह बात भली भाँति विदित हो गई कि प्राचीन समय में विद्या की बहुत उन्नति की गई थी और जब तक धर्म के नाम पर कृत्रिम बन्धन न उत्पन्न हुए थे तब तक उम विद्या की उन्नति बराबर जारी रही । यह विश्वास दृढ़ होते ही वे लोग प्रचलित धर्म-बन्धनों को शिथिल करने, सर्वसाधारण लोगों की बुद्धि की स्वाधीनता को पुनः उत्तेजित करने और अनेक सरियो के संचित अज्ञान का नाश करके यथार्थ ज्ञान का प्रचार करने का भगीरथ-यत्न करने लगे। इसी यत्न को यूगेप के इतिहास में विद्या का पुनरुज्जीवन कहते हैं। इस यत्न का आरम्भ होने ही यूरोप भर के विचारवान् लोगों के हृदय में यथार्थ ज्ञान प्रकाशित होने लगा और विद्या- प्राप्ति की जिज्ञामा शीघ्रता में बढ़ने लगी। प्राचीन विद्या का मारा ज्ञानभाण्डार ग्रीक, लैटिन और हिब्रू भाषाओं के ग्रन्थों में भरा पड़ा था, जो साधारण लोगों को बड़ी कठिनाई से हस्तगत हो मकता था । इसलिए लोगों की बढ़ती हुई जिज्ञासा की तृप्ति के लिए प्राचीन ग्रन्थों में भरा हुआ मारा ज्ञानभाण्डार प्रचलित देशी भाषाओं के द्वारा बुले हाथ लुटाया जाने लगा। ज्यों ही प्राचीन दर्शन-शास्त्र, तत्त्वविचार, नीति, न्याय, साहित्य, काव्य और इतिहास के ग्रन्थों के माथ साथ धर्म-ग्रन्थों के अनुवाद देशी भाषाओ में प्रकाशित होने लगे त्यों ही प्राचीन विद्या के इने-गिने कोरे अभिमानियों, और केवल स्वार्थ तथा मत्ता के बल पर कृत्रिम धर्मबन्धनों की रक्षा करने वाले धर्मोपदेशकों, की पोल खुल गई । विचारशक्ति की स्वाधीनता पूर्ण रीति से जागृत हो गई और यूरोप के सर्वसाधारण लोग मुट्ठी भर गनाधिकारियों के कृत्रिम दासत्व से उकता गये । विद्या का यह पुनरुज्जीवन ही यूरोप के धाम्मिक परिवर्तन और राज्य-क्रान्ति का आदि-कारण हिन्दुस्तान के प्राचीन तथा अर्वाचीन इतिहास की ओर देखने से बोध होता है कि यहाँ भी विद्या के पुनरुज्जीवन का यल गत तीन चार सौ वर्षों से हो रहा है। इस देश
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