यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें / 451 की हुई कीति, सम्पत्ति, ऐश्वर्य या वैभव की रत्ती भर भी अभिलाषा न करते थे। ऐसे ही निरभिमानी, स्वार्थ-रहित और देशहितचिन्तक सत्पुरुषों के कारण रोम का प्रजासत्ताक राज्य उन्नति की चोटी पर जा पहुंचा था। हमारा आधुनिक इतिहास गवाही देता है कि बुरा समय आने पर हमारे देश के अनेक स्वार्थी और लोभी सरदारों तथा कार्यकर्ताओं ने केवल अपने ही क्षुद्र लाभ की ओर ध्यान दिया है। इसका जो परिणाम हुआ है वह विचारशील पाठकों पर विदित ही है । इतिहास बता रहा है कि जब कोई पुरुष किसी अधिकार-पद पर आरूढ़ हुआ तब उसने देशहित को एक ओर रखकर प्रायः स्वार्थसाधन और अभिमानप्रदर्शन ही को अपना कर्तव्य समझा। परन्तु स्मरण रहे कि जब तक देशोन्नति करने वाले हमारे भाइयो में रोमन लोगो के समान निःस्वार्थ महात्मा प्रकट न होंगे तब तक देशहित का कोई कार्य सफल न होगा। देशोन्नति का मुख्य बीज स्वार्थत्याग ही है। [ 2 ] विद्या का पुनरुज्जीवन यूरोप के इतिहास से एक और भी महत्त्वपूर्ण बात जानी जाती है। वह विद्या का पुनरुज्जीवन है । जब तक ईसाई धर्म के प्रचारकों ने, केवल पारमार्थिक बुद्धि और लोककल्याण की इच्छा से, अपने धर्म के विशुद्ध तत्त्वों का प्रसार किया तब तक जन- समाज पर अत्यन्त हितदायक परिणाम हुआ। परन्तु आगे चलकर धर्मोपदेशको के हृदय में स्वार्थ ने प्रवेश किया और मुख्य मुख्य मठाधिपतियो के मन में महत्त्वाकांक्षा उत्पन्न हुई । तब उन लोगों का ध्यान पारमार्थिक बोध करने तथा लोकहित-सम्पादन करने से हट गया। लोग स्वयं अपने अधिकार, अपनी सत्ता, अपने वैभव और अपने ऐश्वर्या की प्राप्ति का उपाय सोचने लगे-अनेक उपायों से वे अपनी ही सत्ता की वृद्धि का यत्न करने लगे तभी से यूरोप में सत्य ज्ञान के प्रसार का प्रवाह बन्द होने लगा और अज्ञान का अंधेरा छाने लगा । धर्म और नीति के पारमार्थिक स्वरूप का विस्मरण होने लगा और केवल तान्त्रिक धर्म तथा आडम्बर प्रबल होने लगा । सद्धर्म और सद्विचार की शिथिलता होते ही स्वाधीनता की वृद्धि रुक गई और उदात्त तत्त्व तथा उदार आचरण के बदले केवल बाहरी दम्भ को मान मिलने लगा। इस प्रकार लगभग दस शतकों तक अज्ञान-रूप घोर अन्धकार ने सारे यूरोप को आच्छादित कर लिया था। यही दशा हमारे देश की भी हुई है। परमात्मा के यथार्थ स्वरूप का वोध न होने के कारण प्राणि-हिंसामिश्रित यज्ञयागादि कर्मों की बहुत समय तक प्रबलता रही। जब वेदान्त, बौद्ध तथा भागवत मतों के द्वारा धर्म का संशोधन किया जाने लगा तब हमारे धर्मप्रचारकों ने, ब्राह्मणों के महत्त्व की रक्षा करने के लिए, केवल बाह्य तथा तान्त्रिक धर्माचारों भी स्थापना करके विशुद्ध ज्ञान-प्रतिपादक मतों को पीछे हटा दिया और अज्ञान का साम्राज्य स्थिर कर दिया। इसका यह परिणाम हुआ कि धर्म, नीति
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