432 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली कुछ अत्युक्ति नहीं । ये सारे संसार को पुण्यात्मा बनाने और उसे स्वर्ग के सिहासन पर बिठाने के लिए दिन-रात फ़िक्रमन्द रहते है। अपने देश, अपने प्रान्त, अपने नगर, यहाँ तक कि अपने घर तक में भी प्रभु ईसा मसीह की सुन्दर शिक्षाओ पर चाहे मनों हरताल क्यों न पोता जाता हो, उसकी इन्हें उतनी फ़िक्र नही । उन लोगो को धर्मभीरु और धर्माचरणरत बनाने की ओर इनका ध्यान उतना नहीं जाता जितना कि एशिया और अफ़रीका के विम्मियों, अतएव पाप-पगयणो को धर्मनिष्ठ बनाने की ओर जाता है। अतएव इस तरफ़ ऐसा कोई भी देश या टापू नही जहाँ परोपकारवत के व्रती पादरियो के क़दन शरीफ़ न पहुँचे हो । इमी सद्बुद्धि की प्रेरणा से, 1820 ईसवी में, मैडेगास्कर में भी कुछ पादरी पहुंचे। वहाँ के तत्कालीन राजा ने उनका अच्छा आदर-सत्कार किया। यथा समय उस राजा की मृत्यु हुई। उसके बाद उसकी रानी ने राज्य-भार ग्रहण किया। जिम दिन वह राजासन पर बैठा उसी दिन लोहे के आभरणा से आवृत दो मूर्तियां उसके सामने लाई गई। उन पर हाथ रखकर रानी ने कहा-"हम तुम पर विश्वास करती हैं । हमारी रक्षा तुम्हारे ही हाथ है । इधर इसके पहले ही बहुत से मैडेगास्कर- वासी, ईसाइयो के पेच में पड़कर, ईमाई हो चुके थे। गनी ने उन्हें दण्ड देने का निश्चय किया। किसी को उमने कैद कर लिया, किसी को फांसी दे दी और किसी को जीता ही गड़ा दिया। पर स्वयं रानी ही का एक लड़का, जो ईमाई हो गया था, किसी तरह बच - गया। पूर्वोक्त रानी के मरने पर दूसरी गनी गद्दी पर बैठी। कुछ दिनो बाद, वह खुद ही ईसाइन हो गई । इस कारण उसने राज्य भर में मुनादी करवा दी कि जितनी मूतियाँ है सब तोड़ डाली या जला डाली जायें । इस आज्ञा का यथामाध्य परिपालन किया गया । फल यह हुआ कि तब से ईसाई धर्म ही की तूती वहाँ बोल रही है। इस समय मंडेगास्कर में छोटे-बड़े सौ सवा सौ गिरजे होगे । अधिकांश सकालवा लोग हजरत ईसा की पवित्र भेड़ो के ग़ल्ले में शामिल हो गये है और सातवें आसमान पर चढ़ा दिये जाने का रास्ता देख रहे है। प्रभो, मसीह, उनकी कामना फलवती कीजियो ! [दिसम्बर, 1923 की 'सरस्वती' में 'श्रीयुत शिवगोपाल मित्र' नाम से प्रकाशित । 'पुरातत्त्व-प्रसंग' पुस्तक में संकलित । म.fr.र.4
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