जूललैंड (अफरीका) की असभ्य जूली-जाति - जूलूलैंड दक्षिण अफरीका का एक प्रदेश है। उसका विस्तार कोई 8,900 वर्गमील है । उमके उत्तर में स्वाजीलैंड और टोंगालैंड है और पूर्व में भारत-महामागर । दक्षिण में टगेला नदी उसे नेटाल से अलग करती है। उसके पश्चिम में डामबर्गेन नाम की पर्वत-माला है। यह प्रदेश अँगरेज़ी गवर्नमेंट द्वाग संरक्षित नेटाल-राज्य के अधीन है। यहाँ की जन-संख्या डेढ़ लाख है । उसमें कोई माढ़े छ. सौ अँगरेज़ हैं । इम देश में जूलू-जानि का निवास है। इससे इसका नाम जूलूलैंड है । यह जाति बांटू नामक हबशियों की एक शाखा है। नेटाल, केप-कालोनी, दक्षिण-पूर्व अफरीका और मोफाला आदि प्रदेशों के समुद्र के किनारेवाले हिस्सों में भी इस जाति के लोग रहते हैं । कोई काई इन्हें जूलू काफ़िर भी कहते हैं, पर यह इनका उपयुक्त नाम नहीं । काफ़िर अरबी भाषा का शब्द है। जंजिवार और मोफाला के अरब लोग इन्हें मूर्ति-पूजन करते देव, घृणा से इन्हें काफ़िर कहा करते थे । तभी से इनका यह नाम पड़ गया। जूली लोगों का आदिम स्थान कहाँ था और वे लोग कब इम प्रदेश में आए, इमका ठीक-ठीक पता अभी तक नहीं मिला। कुछ लोगो का अनुमान है कि ये लोग अन्यान्य हबशी जातियों के पोछे यहाँ आए। इनके आने का समय अँगरेजो के आने के हजार-डेढ़ हजार वर्ष पहले का माना जाता है। परतु इमका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं। जूली लोगों का रंग-रूप मध्य जांबेज़ी और कांगोलैंड के निवासियों से मिलता है; पर इनकी भाषा उन लोगो की भाषा से भिन्न है। इनके शब्दो के उच्चारण से हाटेंटाट लोगों के शब्दों की तरह ग्वटखटाहट की ध्वनि निकलती है । इन लोगों के शब्दों की व्युत्पत्ति सेकुआना और डमारा भाषा के शब्दो से अधिक मिलती है । कृषि-विद्या, सामाजिक नियम, युद्ध-विद्या और अस्त्र-शस्त्र मे पूर्व अफ़रीका और विक्टोरिया यान्जा के निवामियो से इनका सादृश्य पाया जाता है । जूलू लोग बांटू-श्रेणी की अन्यान्य जानियो के लोगों से सुडौल और सुदर होते हैं। इन लोगों का रंग भी उन लोगो से कुछ साफ होता है। पहले ये लोग वैल, भेड़ आदि के चमडे से अपने पहनन के वस्त्र तैयार करते थे, पर अब ये कवल और मूती कपड़ो का भी व्यवहार करने लगे हैं । परंतु इस लोगों को कपड़े-लत्ते की परवा बहुत कम रहती है। केवल जाड़े और बरसात ही मे ये लोग लवा अँगरखा पहनते हैं । अन्य ऋतुओं में मर्द-औरत दोनों कमर से ऊपर का समुना अंग खुला ही रखते । स्त्रियां कभी-कभी अपने वक्षःस्थल के रहती है; पर पुरुषों का वक्षःस्थल सदैव खुला ही रहता है। इनके अंगरखों के रंग और काट-छाँट में परस्पर बहुत भेद पाया जाता है। कोई-कोई कांच के मनकों, बटनों और कौड़ियो से अपने अंगरखो को सजाते है।
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४१९
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