पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३९६

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392 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली इस मकान के चारों तरफ़ एक बड़ा ही मनोहारी बागीचा था । जगह-जगह पर फ़व्वारे अपने सलिल-सीकर बरसाते थे। उनकी बूंदें बिल्लौर के समान चमकती हुई भूमि पर गिर-गिरकर बड़ा ही मधुर शब्द करती थीं। फ़व्वारों के किनारे-किनारे माधवी-लताएँ कलियों से परिपूर्ण शरद् ऋतु की चाँदनी का आनंद देती थीं। फ़व्वारों के कारण दूर-दूर तक की वायु शीतल रहती थी। जहाँ-तहाँ सघन वृक्षों की कुंजें भी थीं। आगे चलकर गर्मियों में रहने के लिये एक मकान था, जिसे हम मदन-विलास कह सकते हैं । पाठक, कृपा करके इमके भी दर्शन कर लीजिए। इमकी भी मजावट अपूर्व थी। इसमें जो मेजें थी, वे देवदारु की सुगंधित लकड़ी की थीं। उन पर चाँदी- सोने के तारों से तारकशी का काम था। सोने-चांदी की रत्न-जटित कुर्मियाँ भी थीं। उन पर रेशम की झालरदार गद्दियाँ पड़ी हुई थीं। कभी-कभी मेहमान लोग इममें भी भोजन करते थे। भोजनोपरांत वे चाँदी के बर्तनों में हाथ धोते थे । इसके बाद बहुमूल्य शराब, सोने के प्यालों में, उड़ती थी। पानोत्तर माली प्रमून-स्तवक मेहमानों को देता और सुमन-वर्षा होती थी। अंत में नृत्य आरंभ होता था। इसी गायन-वादन के मध्य में इत्र-पान होता था, और गुलाब-जल की वृष्टि होती थी। ये सब बातें अपनी हैसियत के मुताबिक़ सभी के यहाँ होती थीं । त्योहार पर तो सभी ऐसा करते थे। एक दिन कोई त्योहार मनाया जा रहा था । वृद्ध, युवा, बालक, स्त्रियाँ, सभी आमोद-प्रमोद में मग्न थे। इतने में अकस्मात् विस्यूवियस से धुवाँ निकलता दिखाई दिया । शनैः शनैः धुएं का गुबार बढ़ता गया। यहाँ तक कि तीन घंटे दिन रहे ही चारों ओर अंधकार छा गया। सावन-भादों की काली रात-सी हो गई। हाथ को हाथ न मूझ पड़ने लगा। लोग हाहाकार मचाने और त्राहि-त्राहि करने लगे। जान पड़ा कि प्रलय आ गया। जहां पहले धुवाँ निकलना शुरू हुआ था, वहाँ से चिनगारियाँ निकलने लगीं। लोग भागने लगे। परंतु भागकर जाते भी तो कहाँ ? ऐसे समय में निकल भागना नितांत असंभव था। अंधेरा ऐसा घनघोर था कि भाई बहन से, स्त्री पति से, मां बच्चों से बिछुड़ गई । हवा बड़े वेग से चलने लगी। भूकंप हुआ । मकान धड़ाधड़ गिरने लगे। ममुद्र में चालीस-चालीस गज ऊंची लहरें उठने लगीं। वायु भी गर्म मालूम होने लगी, और धुवाँ इतना भर गया कि लोगों का दम घुटने लगा। इस महाघोर संकट मे बचने के लिये लोग ईश्वर से प्रार्थना करने लगे । पर सव व्यर्थ हुआ। कुछ देर में पत्थरों की वर्षा होने लगी, और जैसे भादों में गंगाजी उमड़ चलती हैं, वैसे ही गरम पानी की तरह पिघली हुई चीजें ज्वालामुखी पर्वत से बह निकली। उन्होंने पापियाई का सर्वनाश आरंभ कर दिया। मेहमान भोजन-गृह में, स्त्री पति के साथ, सिपाही अपने पहरे पर, कैदी कैदखाने में, बच्चे पालने में, दुकानदार तगजू हाथ में लिए ही रह गए । जो मनुष्य जिस दशा में था, वह उसी दशा मुद्दत बाद, शांति होने पर, अन्य नगर-निवासियों ने वहाँ आकर देखा, तो मिवा राख के ढेर के और कुछ न पाया। वह राख का ढेर ख़ाली ढेर न था; उसके नीचे हजारों मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा पूरी करके सदैव के लिये सो गए थे। रह गया।