अफ़गानिस्तान में बौद्धकालीन चिह्न / 35 उन लोगों ने भी की। ख़लीफ़ा हारूनुर्रशीद के ज़माने में भारतीय विद्वानों और कला- कोविदों का सम्मान बग़दाद में भी हुआ। वहाँ उन्होंने अरबों पर भी अपनी विद्वत्ता की धाक जमाई। नवीं सदी में सम्राट् कनिष्क का वंशज अफ़ग़ानिस्तान और उसके आस पास के प्रान्तों का अधीश्वर था। उसकी राजधानी काबुल नगर में थी। 870 ईसवी में अरबों के सेनानायक याकूब-ए-लैस ने उसे परास्त करके उसका राज्य छीन लिया। तभी से वहाँ इस्लामी राज्य की नींव पड़ी । परन्तु यह समझना चाहिए कि, इस कारण, देशों का सम्पर्क भारत से छूट गया। नहीं, भारतीय पण्डितों और भारतीय शास्त्रवेत्ताओं की क़दर करना उस समय के मुसलमान बादशाहों और ख़लीफ़ों ने बन्द नही किया। वे उन्हें बराबर अपने देश में सादर बुलाते और उनकी विद्या-बुद्धि से लाभ भी खूब उठाते रहे। यह उस समय की बात है जब अफ़ग़ानिस्तान तथा उसके पास-पड़ोस के प्रान्तों में हिन्दुओं और बौद्धों ही की बस्ती अधिक थी। ये लोग अलप्तगीं और सुबुक्तगी इत्यादि जनरलों के आक्रमणों से अपनी रक्षा यथाशक्ति करते रहे । पर अनेक कारणों से इन्हें पर होना पड़ा और 990 ईसवी में लमगान का किला भारतीयो के हाथ से निकल गया। यह जगह काबुल से 70 मील है। अन्त में महमूद ग़ज़नवी ने भारतीय सत्ता का समूल ही उन्मूलन कर डाला । केवल काफ़िरिस्तान उसके आधिपत्य से बच गया । वहाँ, उस प्रान्त में, अब तक भी बहुत कम मुसलमान पाये जाते हैं । तदितर धर्म वाले ही वहाँ अधिक हैं। इस संक्षिप्त विवरण से ज्ञात हो जायगा कि जिस अफ़ग़ानिस्तान और मध्य- एशिया में इस समय इस्लामी डंका बज रहा है वहाँ मुसलमानों की अधिकार प्राप्ति के पहले हजारों वर्ष तक भारतीय सभ्यता और सत्ता का दौर-दौरा था । अतएव यदि वहाँ बौद्धकालीन ऐतिहासिक चिह्न अब भी, टूटी फूटी दशा मे, बहुत से पाये जायें तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं। मुसलमानों ने तो हिन्दुओं की पुरानी इमारतों और पुराने चिह्नों की रक्षा दूर, उनका विनाश करना ही, बहुधा अपना कर्तव्य समझा। अतएव उनके जो ध्वंसावशेष यत्र तत्र बच गये हैं उसे दैवयोग ही समझना चाहिए। मध्य-एशिया के प्राचीन चिह्नों की खोज करके कई अंगरेज, जर्मन और फरासीसी विद्वान् अनेक अज्ञात और विस्मृत बातों का पता लगा चुके हैं। उनका यह काम 1897 ईसवी से शुरू हुआ था और अब तक जारी है । पर 1922 ईसवी तक, किसी भी स्वदेशी पुरातत्त्वज्ञ ने अफ़ग़ानिस्तान में प्राचीन चिह्नों का पता लगाने की चेष्टा नहीं की थी। फरासीसी पण्डित फूशर (Foucher) ने उस वर्ष, अफ़ग़ानिस्तान के अमीर की आज्ञा से, पहले-पहल खोज का काम शुरू किया। खोज से उन्हें अनेक महत्त्वपूर्ण स्तूपों, मीनारों, मूर्तियों आदि का पता लगा। उनमें से कितनी ही वस्तुओं को उठाकर पेरिस ले गये। वहाँ पर वे एक अजायबघर में रक्खी गई हैं। उन्हें देख कर पुरातत्त्व के पण्डितों और भारत की प्राचीन कारीगरी के ज्ञाताओं को अपार आनन्द और आनन्द के साथ आश्चर्य तथा परिताप भी होता है। जो भारत इस समय अपने प्राचीन गौरव को भूल सा गया है उसी ने
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