विक्टर ह्यूगो / 347 प्रकाशित हुए। उनमें भी वही विलक्षणता है; वही प्रतिभा-प्रकाश है । अपने जीवन-काल में ही अनन्त यशोराशि अर्जन करके, 1885 में, विक्टर ह्य गो ने अपनी इहलीला संवरण की। ह्य गो के चरित्र-चित्रण में एक विशेषता है जो अन्य किमी लेखक में नहीं। उदाहरण के लिए स्काट को ही लीजिए। स्काट मे भी चरित्र अंकित करने की कुशलता थी, अवलोकन की शक्ति थी और कल्पना थी। यही बात विकर ह्य गो में थी। पर ह्य गो की कृति से जैसा प्रभाव पड़ता है वैमा स्काट के उपन्यासो से नही पड़ा । अर्थ और भाव का जो गाम्भीर्य ह्य गो मे है यह स्टाक में नहीं। ह्य गो की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसने मानव-जीवन में हमें अदृष्ट शक्ति का दर्शन कगया है। संसार में सबसे अलक्षित किन्तु सबसे अनुभून जो हाहाकार-ध्वनि उठ रही है, जिसके कारण मत्र अपने अधरों के हाम्य में हृदय की मर्मव्यथा छिपाये रहते है, वह हमें ह्य गो की कृति में दिग्बाई देती है। ह्य गो के साथ पाठकों की अनवच्छिन्न सहानुभूति रखती है। यही कारण है कि पाठक उसकी प्रतिभा से केवल विस्मय-विमुग्ध ही नही होते, उसके साथ ही उमके भावस्रोल में बह भी जाते है। साधारण मनुष्यों के अत्यन्त साधारण जीवन में भी काव्यमय मौन्दर्य रहता है, परन्तु उसे देखने के लिए कल्पना और सहानुभूति चाहिए । राजा प्रासाद और दरिद्र की क्षुद्र कुटि में जीवन का जो उत्थान-पतन होता है, आशा और निराशा का जो दन्द्र- युद्ध मचता है, धनिकता और निर्धनता के बाह्य आवरणो के नीचे जो आंधी उठती है, उसका चित्र खचित कर देना कवि का ही कर्त्तव्य है, यद्यपि यहीं उसके कर्तव्यो का अन्त नहीं हो जाता। ह्य गो के काव्यो का जो विलक्षण प्रभाव पड़ता है उसका कारण यही है। कवि में जैसे भावों की गम्भीरता है वैसे कल्पना-शक्ति की उद्दण्डता भी है । परन्तु अस्वाभाविकता ज़रा भी नहीं। वह जिस प्रकार जीवन के अन्धकारमय रहस्यो पर प्रकाश डालते हैं उसी प्रकार वह मनुष्यों की कोमल वृत्तियों को भी अंकित करने में सिद्ध-हस्त है। विक्टर ह्य गो ने एक बार प्रिन्स विस्मार्क को सम्बोधन कर के कहा था-"तुममें एक शक्ति है; मुझमें दूसरी शक्ति है। पर मैं तुझसे बड़ा हूँ। तू शरीर है तो मै आत्मा हूँ। यदि हम दोनों एक हो जाये तो संसार का अस्तित्व ही न रहे।" ह्य गो के इस कथन में क्या केवल गर्वोक्ति है ? नहीं, वह याथार्थ्य से भरी हुई [नवम्बर, 1920 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । असंकलित।
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