सिंहल द्वीप के बौद्ध विद्वान आचार्य सुमंगल 1911 ईसवी के एप्रिल में, लंका के सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् आचार्य श्रीसुमंगलजी का देहान्त हो गया। उन पर आक्टोबर 1912 ईसवी के 'आफ़रीकन टाइम्स एंड ओरियंट रिव्यू' नामक मासिक पुस्तक में, कोलम्बो के श्रीयुत ए० सुमेरुसिंहजी का लिखा हुआ, एक सचित्र लेख प्रकाशित हुआ है। पूर्वोक्त पुस्तक के सम्पादक की अनुमति से उसी लेख का आशय नीचे दिया जाता है। सुमंगलजी बौद्ध धर्म के देदीप्यमान रत्न थे। उन्होंने तलवार के बल या धीगा- धींगी से नहीं, किन्तु अपनी योग्यता और विद्वत्ता और आभा से, अपनी सरलता और उच्चाशयता के प्रभाव से, संसार के कठोर से कठोर और उद्दण्ड से उद्दण्ड मनुष्यों के हृदयों पर भी बौद्ध धर्म के दया और क्षमा, प्रेम और सहानुभूति के सिद्धान्तों की महत्ता अंकित करके छोड़ी। इसमें सन्देह नहीं कि थोड़े ही से भारतवासी ऐसे निकलेंगे जो सुमंगलजी के नाम और धाम से परिचित हों; परन्तु, यथार्थ में, सुमंगलजी अप्रसिद्ध पुरुष न थे । संसार की अनेक प्रतिष्ठित सभाओं ने उन्हें अपना माननीय मेम्बर निर्वाचित किया था । पाश्चात्य देशों के बड़े-बड़े विद्वानों में उनका बड़ा आदर था । न्याय देश के बौद्ध राजा और बड़े-बड़े धनाढ्य उनके चरणों पर अपना सिर रखते थे। सुमंगलजी का जन्म 1827 ईसवी में हुआ था। उनके जन्म के थोड़े ही समय पीछे लंका पर अँगरेज़ो का आधिपत्य स्थापित हुआ । उनका असली नाम था अभयवीर गुणवर्द्धन । सुमंगल नाम तो उस समय पड़ा जब वे साधु हुए। चार वर्ष की उम्र में वे अपने गांव की पाठशाला में सिंहली भाषा पढ़ने लगे। बचपन ही में उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय दिया। लोग उनकी चतुरता और बुद्धिमत्ता को देखकर दंग रह जाते थे। उनका एक भाई उनसे बहुत बड़ा था। बहुत पहले से वह पढ़ता भी था। जिस समय सुमंगल ने पाठशाला में प्रवेश किया उस समय वह कितनी ही पुस्तकें समाप्त कर चुका था। पर थोड़े ही दिनों में सुमंगल पढ़ने में केवल उसके बराबर ही न हो गये, किन्तु उससे आगे भी बढ़ गये । नौ वर्ष की उम्र में सुमंगल ने मिहली भाषा का पाठ्य-क्रम समाप्त कर डाला । तब उन्होंने अंगरेजी पढ़ना चाहा; परन्तु एक घटना ऐसी हो गई जिससे उन्हें, उतनी ही छोटी उम्र में, घर-द्वार छोड़कर एक बौद्धमठ में प्रवेश करना पड़ा। उन्हीं दिनों उनके माता-पिता ने एक ज्योतिषी को उनका जन्म-पत्र दिखाया । ज्योतिषी ने बताया कि सुमंगल अधिक काल तक जीवित न रहेंगे । उसकी इस भविष्यद् वाणी से सुमंगल के माता-पिता के हृदयों पर बड़ी चोट लगी। उन्होंने निश्चय कर लिया कि बालक सुमंगल का प्रवेश बौद्ध-मठ में करा ही देना चाहिए । कदाचित् इस पुण्यकार्य से वे दीर्घजीवी हो सकें। बालक सुमंगल साधु बनने को तैयार न थे; परन्तु, अन्त में,
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