पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३०८

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अध्यापक एडवर्ड हेनरी पामर - पाश्चात्य देशों में पूर्वी भाषाओं के जानने वाले विद्वानों की कमी नहीं, परन्तु इस प्रकार के विद्वानों में बहुत ही थोडे ऐसे निकलेंगे जिन्हें उस पूर्वी भाषा में, जिसके वे धुरन्धर ज्ञाता कहलाते हैं, बोलने का भी वैसा ही अभ्यास हो जैसा उन्हें उसके लिखने-पढ़ने का है । पूर्वी भाषाओं के पाश्चात्य विद्वानों में मैक्समूलर का नाम बहुत प्रसिद्ध है। वे बड़े भारी संस्कृतज्ञ थे। परन्तु सुनते हैं, नीलकण्ठ शास्त्री गोरे ने उनसे संस्कृत में भाषण किया तो वे उनकी बात ही न समझ सके । उन पाश्चात्य विद्वानों में, जो अपनी अभिमत पूर्वी भाषा लिख भी सकते हों और बोल भी सकते हों, अध्यापक पामर का आसन बहुत ऊँचा है । वे अंगरेजी फ्रेंच, जर्मन, इटालियन, लैटिन, ग्रीक आदि योरप की कितनी ही भाषाओं के अतिरिक्त अरबी, फारसी और उर्दू इन तीन पूर्वी भाषाओं को भी बहुत अच्छी तरह जानते थे । उनमें यह एक खास गुण था कि वे जिन-जिन भाषाओं को जानते थे उनमें वे अपनी मातृभाषा ही की तरह बोल भी सकते थे। एडवर्ड हेनरी पामर का जन्म मन् 1840 ईसवी की सातवीं अगस्त को, केम्ब्रिज नगर में, हुआ। शैणवकाल ही में उनके माता और पिता दोनों उन्हें अनाथ करके चल बसे । उनके पिता की बहन ने उनका लालन-पालन किया। जब वे कुछ बड़े हुए तब पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजे गये। लड़कपन ही से उन्हें अन्य भाषायें सीखने का शौक था। पाठशाला से उन्हें जो समय मिलता उसमें उन्होंने गिप्सी लोगों की भाषा सीख ली । जो पैसे उन्हें जेब-ख़र्च के लिये मिलते उन्हें वे लोगों को दे-देकर रोमेनी भाषा की शिक्षा प्राप्त किया करते । थोड़े ही दिनों में उन्होंने उस जंगली भाषा के शब्दकोष को रट डाला। गिप्सियों के डेरों में जा-जाकर और उनसे उनकी भाषा ही में बात-चीत करके उन्होंने शीघ्र ही वह भाषा बोलने और समझने का इतना अभ्यास कर लिया कि वे असभ्य से असभ्य गिप्सी के भाषण को खूब अच्छी तरह समझ लेने लगे । रोमेनी सीखने का फल यह हुआ कि उन्हें गिप्सी लोगों के आन्तरिक जीवन की बहुत सी बातें मालूम हो गई और वे भी उनसे नि:संकोच मिलने और उनसे बातचीत करने लगे। पामर अधिक काल तक पाठशाला में न रह सके। पढ़ना छोड़ते ही उन्होंने लन्दन के एक मौदागर के यहाँ नौकरी कर ली। जो समय मिलता उसमें उन्होंने फ्रेंच और इटालियन भाषाओं का अध्ययन आरम्भ कर दिया । यद्यपि उन्हें पढ़ने-लिखने का बड़ा शौक़ था; परन्तु वे कोरे किताबी कीड़े न थे। विदेशी भाषाओं के सीखने में उन्होंने पुस्तकों का विशेष आश्रय न लिया । जिम भाषा को वे मीखते उस भाषा के बोलने वालों के समाज में वे फुरसत पाते ही पहुंच जाते । उनमें एक बड़ा भारी गुण यह था कि वे अपरिचित आदमियों से, चाहे वे जिस देश के हों, चाहे जो भाषा बोलते हों, बड़ी जल्दी म. द्वि०र०-4