298 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली सिक्का संसार पर जमा दिया । इस युद्ध में मुत्सू हीटो ने अपने सेना-नायको को बहुत उत्साहित किया। 1904 में जापान को फिर अपनी वीरता प्रकट करने का अवसर प्राप्त हुआ। रूस से उसकी खटपट हो गई । एक वर्ष तक जिस जोर के साथ यह युद्ध होता रहा और जापानियों ने जिस प्रकार की कुर्बानियाँ करके अपनी देशभक्ति और वीरता का परिचय संसार को दिया, वह समाचारपत्रों के पाठक भूले न होंगे। संसार उनकी वीरता और उनके सम्राट मुत्सू हीटो और अन्य राज्य-पुरुषों की बुद्धिमत्ता और राजनीतिज्ञता का लोहा मान गया। उनके बल के सामने संसार की महाशक्ति रूस को अन्त में नीचा देवना पड़ा और नन्हे से जापान की गणना अब संसार की महती शक्तियों में होने लगी। अज्ञात जापान अवनति के गढ़े से निकाला जाकर उन्नति और प्रसिद्धि के शिखर पर चढ़ा दिया गया । गला घोंटने और शरीर को छिन्न भिन्न करने वाली ज़मींदारी- प्रथा से उसे छुटकारा मिला । संसार की अग्रगण्य जातियाँ और देश उसे अपनी बराबरी का ममझने लगे। इतना ही नहीं, उसने अपनी उन्नति से पश्चिम की भूमि-लोलुप महाशक्तियों को इस बात की चेतावनी-सी दे दी कि अब भविष्यत् में वे एशिया महाद्वीप में फेंक-फूंककर क़दम रक्वें । ये सब महत्त्वपूर्ण बातें थी। पर ये बहुत ही अल्पकाल मे हो गई । इनका करना किसी एक आदमी का काम न था और न ये एक दिन में हो ही सकती थीं। वर्षों पूर्व से भीतर ही भीतर नाना प्रकार की शक्तियाँ जापानी जाति को ठोंक पीटकर इस परिवर्तन के लिए तैयार करनी रही होगी। परन्तु जापान के सम्राट मुत्म हीटो ने इस उन्नति-चक्र को घुमाने का जो यत्न किया वह कम महत्त्व का नही कहा जा सकता । पराधीनता के अन्धकार में ठोकर खाती फिरने वाली जाति का पुनरुद्धार करना बड़ा भारी काम अवश्य है, परन्तु अवनति के गढ़े से गिरी हुई जाति को सचेत करके उन्नति के शिखर पर बिठा देना और संमार से उसकी प्रतिष्ठा करा लेना भी कम महत्त्व का काम नही। मुत्सू हीटो ने दूसरे प्रकार का काम कर दिखाया। यदि नेपोलियन बीस लाख से अधिक मनुष्यो का रक्तपात कराकर फ्रांस के प्रजासत्ताक राज्य का बलिदान अपनी उच्च अभिलाषाओं की पूर्ति के निमित्त देकर और अन्त मे हार जाने पर-फ्रास को योरप की शक्तियों के सामने दयाप्रार्थी होते हुए छोड़कर महान पुस्प कहा जा सकता है, तो संसार में शायद ही कोई ऐसा हृदय-शून्य मनुष्य हो जिसे मुत्म हीटो को-जिन्होंने अपने देश जापान ही को इस उच्च अवस्था को नही पहुँचाया, किन्तु पाश्चात्य शक्तियों के बढ़े हुए हाथो से पास के अन्य पूर्वी देशो को भी अशतः निर्भय करने का पुण्य कमाया-महान् पुरुष कहने में संकोच हो । जापानी जाति मुत्सू हीटो को जी-जान से चाहती थी। समय समय पर इस बात के कितने ही उदाहरण मिल चुके हैं । परन्तु इस समय की राजभक्ति का दृश्य जब मुत्सू हीटो मृत्यु-शय्या पर पड़े हुए थे और चिकित्सको ने जवाब दे दिया था, बड़ा ही कारुणिक था । गजमहल के चारों ओर हजारों जापानी उदास घूमत रहते थे और सम्राट् के नीगेग होने के लिए झुक झुककर ईश्वर से प्रार्थना करते थे। एक आदमी ने तो सम्राट के आरोग्य लाभ के लिए बलिदान स्वरूप आत्म-हत्या तक कर डाली । देश भर में नाच
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