अलबरूनी / 293 दिनों बाद इसलाम धर्म ने आकर बौद्ध धर्म को वहां से निकाल दिया और अपना राज्य जमा लिया । बौद्ध धर्म तो वहां से विलुप्त हो गया; परन्तु बौद्ध लोग वहाँ से विलुप्त नही हुए । इसका अर्थ यह है कि जो लोग बौद्ध थे वही मुसलमान हो गये । मुसलमान- राज्य का केन्द्र पहले दमिश्क नगर में प्रतिष्ठित हुआ। परन्तु राज्य-संस्थापना की गड़बड़ के कारण वहाँ माहित्य-चर्चा उन्नति-लाभ न कर मकी । इसके बाद मुसलमान-माम्राज्य का केन्द्र स्थान बगदाद हुआ। सच पूछिए तो यही मुसलमानों में ज्ञान-पिपासा उत्पन्न हुई । उस समय विपुल भारतीय साहित्य के सामने क्षुद्र अरबी-साहित्य को कोई न पूछता था । अतएव बगदाद के ख़लीफ़ा लोग भारतीय साहित्य-भाण्डार को हस्तगत करने के लिए व्यग्र हो उठे। दो कारणों से यह व्यग्रता और भी प्रबल हो उठी । इसलाम धर्म के अभ्युत्थान की प्रथम अवस्था ही में फ़ाग्मि मुमलमानो के कब्जे में आ गया था । वाहुबल में बलवान् होने पर भी बग़दाद ज्ञान-बल मे फ़ारिम के समकक्ष न था । फ़ारिस ने किमी समय वौद्ध-शिक्षा के कारण अच्छी उन्नति-लाभ की थी । अतएव पराजित होने पर भी फारिम वग़दाद की अपेक्षा अधिक ज्ञानोन्नत समझा जाता था । मालवर्ष की शिक्षा ही फ़ारिस की ज्ञानोन्नति का मूल है। यह बात जानते ही बगदाद-वासी भारतीय ज्ञान-भाण्डार को करतलगत करने के लिए व्याकुल हो उठे । इमी समय ब्रह्मगुप्त के 'ब्रह्मस्फुट-सिद्धान्त' का अनुवाद अरबी में किया गया । उम समय तक जिन-जिन देशों में मुशलमानो का राज्य था उन सबमें भारतीय ज्ञान का यश:सौरभ फैला हुआ था। उस समय इसलाम केवल एक नवोत्थित महाशक्ति थी; उसके पास पूर्व-ज्ञान-गौरव कुछ भी न था। परतु भारतवर्ष वहुत प्राचीन सभ्य देश है । मुसलमानों में उसके ज्ञान-भाण्डार को हस्तगत करने की इच्छा का होना स्वाभाविक ही था । इसी ममय अरबनिवासियों ने भारतवासियो से ज्योतिष-विद्या का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त किया। इस बात को मब लोग मानते हैं। सुप्रसिद्ध खलीफा हागनुर्रशीद के समय में अरबी-साहित्य की खूब उन्नति हुई। प्राचीन बाल्हीक-राज्य के 'नवविहार' नामक प्रसिद्ध बौद्ध मठ के 'परमक' नामक बौद्ध यति के वंशधर उस समय हारुनुरंशीद के मन्त्री थे । वे उस ममय मुसलमान हो गये थे और 'वरमक' गोत्रीय कहलाते थे। उनकी चेष्टा से भारतीय गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, धनुर्वेद, दर्शन, विज्ञान और चिकित्सा-विद्या के सैकड़ो ग्रन्थ अरबी भाषा में अनुवादित किये गये। इसके साथ ही मिश्र और ग्रीस देश का साहित्य अरबी साहित्य को दिन-दिन उन्नत करने लगा। उस तरह अलबरूनो के पैदा होने के पहले ही अरबी-साहित्य उन्नत हो चुका था। उसका पूर्ण रूप से अध्ययन करने के बाद अल रूनी के मन में खुद संस्कृत सीखने की इच्छा उत्पन्न हुई । भारतवर्ष में निर्वामित होने पर उसकी यह इच्छा पूर्ण हुई। संस्कृत-ग्रन्थों का अरबी-अनुवाद अध्ययन करते समय अलबरूनी भारतीय साहित्य के केवल द्वार पर पहुंचा था । अब उसके भीतर प्रवेश के लिए उसका संस्कृतानुराग प्रबल होने लगा। अलबरूनी की धारणा थी कि मूल संस्कृत-ग्रन्थ का माधुर्प अरबी-अनुवाद में रक्षित नहीं रहता । संस्कृत सीखने पर उसकी यह धारणा बद्ध-मूल हो गई । इस समय .
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२९७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।