पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२९६

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292 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली लिए सम-दुःख-दुःखी एक पराधीन देश के प्रति सहानुभूति का होना स्वाभाविक ही है। जो हो, यद्यपि अलबरूनी ने इसलाम धर्म का माहात्म्म प्रकाशित करने में कोई कसर नहीं रक्खी, तथापि उस हिंसा-विद्वेष के युग में भी उसने हिन्दुओ को काफ़िर समझकर उनमे घृणा नहीं की। इस बात को पाश्चात्य पण्डित भी मानते है । अलबरूनी मूर्तिपूजा को अच्छा न समझता था। वह कहता है कि मूर्तिपूजा साधारण आदमियों ही के लिए है; विद्वानों के लिए तो एकेश्वरवाद है। भारत का वेदान्त-मम्मत धर्म इसलाम के एकेश्वरवाद धर्म से मिलता जुलता है. यह बात अलवरूनी ने कई बार लिखी है। अलबरूनी ने जिस समय 'इंडिका' रची थी वह समय एशिया-खण्ड के लिए विप्लव का युग था। एक ओर बौद्ध और हिन्दुओं के संघर्ष के कारण बौद्ध लोग विताड़ित हो रहे थे। दूसरी ओर बौद्ध और इसलाम के परस्पर युद्ध में इसलाम विजयी हो रहा था। बीच-बीच में ईसाइयों और मुसलमानों में भी झगड़ा हो जाता था। इससे ईसाई लोग एशिया से भागे जा रहे थे, इस विप्लव के समय में दर्शनशास्त्रों की चर्चा की जगह वाहुबल और शान्त समालोचना की जगह तेज़ तलवार चल रही थी। इससे कुछ दिन के लिए उच्च शिक्षा विलुप्त हो गई थी। अशिक्षित सेना-दल प्राधान्य और प्रतिष्ठा-लाभ कर रहा था । इसीलिए विजयोन्मत्त मुसलमान लोग भारतवर्ष को काफ़िरस्तान कहने में कुछ भी संकोच न करते थे। भारतवर्ष ही के विपुल-जान- भाण्डार ने अरबी-साहित्य की प्राण-प्रतिष्ठा की है और उसके द्वारा जंगली विदइनो को विद्वान् बनाया है। इस बात को अलबरूनी की तरह दो-चार विद्वानों के सिवा और कोई न जानता था और सुनने पर भी विश्वास न करता था। अलवरूनी भारतवर्ष पर क्यो अनुरक्त था और बाल पक जाने पर क्यों संस्कृत सीखी थी, यह बात समझने के लिए अरबी-साहित्य की आलोचना करना चाहिए। यद्यपि अरबी भाषा बहुत पुरानी है तथापि अरबी-साहित्य ग्रीक और हिन्दू- साहित्य की तरह बहुत पुराना नहीं। कुछ दिन पहले बहुत लोग इस बात को न मानते थे । परन्तु जर्मनी के पुरातत्त्वेत्ताओं ने इस बात को सत्य सिद्ध कर दिया है। अरवी के प्राचीन साहित्य में केवल कविता ही की अधिकता थी। मभूमि अरब के निवासी उसी को यथेष्ट समझते थे । कुछ दिन बाद कुरान और हदीस भी उसमें मिल गई । परन्तु तब भी अरबी-साहित्य में केवल इने-गिने ग्रन्थ थे । इसके कई सौ वर्ष बाद तक उसकी यही दशा रही। इसमें सन्देह नहीं कि अरब की मरुमरीचिका ही में इसलाम-धर्म का अभ्युदय हुआ था; परन्तु वहाँ उसने ज्ञान-गौरव-लाभ नहीं किया। सुप्रसिद्ध बग़दाद गजधानी ही इसलाम धर्म और अरबी-साहित्य का गौरव-क्षेत्र हुई। पश्चिमी देशो के माथ भारत का व्यापार प्राचीन काल में बगदाद ही के रास्ते होता था। इसलिए इन देशों में भारतवासी बराबर आते-जाते थे। किसी ममय बौद्ध धर्म-प्रचारकों ने एशियाखण्ड के इन सब पश्चिमी देशों में वौद्धमत का खूब प्रचार किया था। उनके द्वारा भारतीय साहित्य का प्रचार भी इन देशों में हो गया था। कुछ