पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२७४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
270/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली

'बिलकुल न जानकर उसे अनुवाद से निकाल बाहर किया है । उसकी जगह पर आपने रक्खा क्या है, 'फादर'-पिता ! आपने पूर्वोक्त पद्यार्द्ध का अनुवाद किया है- But if the grief Of an old forest hermit is so great, How keen niust be the pang a father feels When freshly parted from a cherished child. यहाँ पर 'फादर' (पिता) से कभी वह अर्थ नही निकल सकता जो गेही या गृहस्थ से निकलता है। श्लोक मे वनवासी और गृहस्थ का मुकाबला है । कण्व न तो शकुन्तला के पिता थे; न गृहस्थ । तिस पर भी शकुन्तला से विदा होते समय वे विह्वल हो उठे । अब यदि वे उसके पिता होते और वन में भी रहते होते तो उनकी विकलता और भी बढती। और यदि कहीं पिता होकर वे गृहस्थ भी होते तो उनकी विकलता का कहीं ठिकाना न रहता । यदि किसी कन्या का पिता वन में तपस्वी हो तो उसे अपनी कन्या से बिदा होते समय जितना दुःख होगा उससे कई गुना अधिक उस कन्या के पिता को होगा जो घर में रहता होगा-जो गृहस्थ होगा। कारण यह है कि अरण्यवासी तपस्वी त्यागी होते हैं; मनोविकारों के वे कम वश में होते हैं, पर गृहस्थ आदमियों को माया-मोह बेतरह मताता है । इमी से उन्हें कन्या मे हमेशा के लिए बिदा होते समय अत्यधिक दुग्न और कातर्य होता है। पर यह इतनी मोटी बात मूक्ष्मदर्शी मुग्धानलाचार्य महोदय के ध्यान में नहीं आई जान पड़ती। दुष्यन्त अपने पुत्र को देखकर मन ही मन कहता है- अनेन कस्यापि कुलांकुरेण स्पष्टस्य गात्रेषु सुखं ममैवम् । कां निवृत्ति चेतसि तस्य कुर्याद्यस्यायमङ्कात् कृतिनः प्ररूढः ।। अर्थात् किसी अपरिचित के इस बालक का मेरे शरीर में केवल एक-दो जगह स्पर्श हो जाने ही से मुझे इतना आनन्द हुआ, तो जिस भाग्यशाली की गोद में बढ़कर यह इतना बड़ा हुआ है उसके हृदय में यह न मालूम कितना आनन्दातिरेक पैदा करता होगा। इसका अनुवाद आचार्य मुग्धानल ने किया है- If now the touch of but a stranger's child Thus sends a thrill of joy throughout all my limbs; What transports must be wakened in the soul Of that blest father from whose loins hc sprang पहली दो मतरों का मतलब है कि किसी अपरिचित मनुष्य के इस लड़के के स्पर्श ने मेरे सब अंगों में सुख की सनसनाहट पैदा कर दी है। आचार्य ने 'गात्रेषु' का अन्वय 'सुन' के साथ किया है, 'स्पृष्टस्य' के साथ नहीं; पर हमारी तुच्छ बुद्धि में यह भारी भूल है। कालिदास का भाव दुष्यन्त के कुछ अंगों में उस बालक के