सुल्तान अब्दुलअज़ीज़ / 237 शिक्षा, सभ्यता और कलाकौशल के पक्षपाती हैं । पर प्रजा पर उनकी बात का असर कम पड़ता है । सुल्तान के अमीर उमरा और अधिकारी विश्वास-पात्र नहीं । वे प्रजा-पीड़क हैं। चाहे जिस तरह से हो रुपया कमाना ही उनका एक मात्र उद्देश रहता है । अधिकार की जगहें बिकती हैं। जो मबसे अधिक देता है वही पाता है । गवर्नरी तक बिकती है। इसी तरह ऊँचे से ऊँचे पद लेकर नीचे से नीचे पद तक का क्रय-विक्रय होता रहता है। यदि सुल्तान प्रजा पर किसी निमित्त एक हजार म्पये कर लगाते हैं तो उसका कई गुना प्रजा को देना पड़ता है । कुछ गवर्नर बढ़ा देता है, कुछ कमिश्नर, कुछ जिले के हाकिम । इसी तरह उसकी खूब वृद्धि हो जाती है । हर एक बड़े अधिकारी के अधीन एक एक जेल रहता है । जो कोई उसे अप्रसन्न करता है वह उसी में लूंमा जाता है । यदि प्रजा से तीन रुपये कर वसूल किया जाता है तो सिर्फ एक रूपया सुल्तान के खजाने में पहुँचता है । इसी से मुराको की दशा अच्छी नहीं । योरप की शक्तियो को मुराको की यह दुरवस्था असह्य हो गई है। इसी से आलजिसीरस में सभा करके वे उसे दूर करना चाहते है-"परोपकार. पुण्याय" । [मई, 1906 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'चरित्र-चित्रण' पुस्तक में संकलित।]
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