पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२३४

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230 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली स्वाधीनता के सिद्धान्तों और लाभों से जानकारी प्राप्त करें।। यदि कोई यह कहे कि हिन्दी के साहित्य का मैदान बिलकुल ही सूना पड़ा है तो उमके कहने को अत्युक्ति न समझना चाहिए। दस पाँच क़िस्से, कहानियाँ, उपन्यास या काव्य आदि पढ़ने लायक पुस्तकों का होना साहित्य नही कहलाता और न कूड़े-कचरे से भरी हुई पुस्तको ही का नाम साहित्य है। इस अभाव का कारण हिन्दी पढ़ने-लिखने में लोगों की अरुचि है। हमने देखा है कि जो लोग अच्छी अँगरेजी जानते है, अच्छी तनख्वाह पाते हैं और अच्छी जगहों पर काम करते है, वे हिन्दी के मुख्य मुख्य ग्रन्थो और अख़बारों का नाम तक नहीं जानते। आश्चर्य्य यह है कि अपनी इस अर्ना-ज्ञता पर वे लज्जित भी नहीं होते। हाँ, लज्जित वे इस बात पर ज़रूर होते है, यदि समय का सत्यानास करने वाले अपने मित्र-मण्डल में बैठकर वे यह न बतला सकें कि अमुक मुन्शी साहब, या अमुक मिरजा साहब, या अमुक पण्डित (!) साहब आजकल कहाँ पर डिप्युटी कलेक्टर हैं; अमुक साहब कहाँ की कलेक्टरी पर बदल दिये गये है; अमुक सदग्आला साहब कब छुट्टी पर आयेंगे; अमुक मुनमरिम साहब के लड़के की शादी कहाँ हुई है; अमुक हेड मास्टर साहब नौकरी से कब अलग होगे ! एक दिन एक मशहूर जिला-स्कूल के हेड-मास्टर ने अपने स्कूल के ढोलन (Roller) का इतिहास वर्णन करके हमारे दो घण्टे नष्ट कर दिये । पर अनेक अच्छी अच्छी पुस्तकों को, नाम लेने पर आपने एक को भी, देखने की इच्छा प्रकट न की। इसका कारण मचि-विचित्रता है। यदि ऐसे आदमियों में से दस पाँच भी अपने देश के साहित्य की तरफ़ ध्यान दें और उपयोगी विपयो पर पुस्तकें लिखें तो बहुत जल्द देशोन्नति का द्वार खुल जाय। क्योकि शिक्षा के प्रचार के बिना उन्नति नही हो सकती; और देश में फ़ी सदी दो चार आदमियो का शिक्षित होना न होने के बराबर है। शिक्षा से यथेष्ट लाभ तभी होता है जब हर गाँव में उमका प्रचार हो; और यह बात तभी सम्भव है जब अच्छे अच्छे विषयो की पुस्तके देश- भाषा में प्रकाशित होकर सस्ते दामों पर बिकें। जापान की तरफ देखिए । उसने जो इतना जल्द इतनी आश्चर्यजनक उन्नति की है, उमका कारण विशेष करके शिक्षा का प्रवार ही है । हमने एक जगह पढ़ा है कि जिस जापानी ने मिल साहब की स्वाधीनता (Liberty) का अपनी भाषा मे अनुवाद किया, वह सिर्फ इमी एक पुस्तक को लिवकर अमीर हो गया। थोड़े ही दिनों में उसकी लाखों कापियां बिक गई । जापान के राजेश्वर खुद मिकाडो ने उसकी कई हजार कापियां अपनी तरफ़ से मोल लेकर अपनी प्रजा को मुफ्त में वॉट दी। परन्तु इस देश की दशा बिलकुल ही उलटी है । यहाँ मोल लेने का तो नाम हो न लीजिये, यदि इस तरह की पुस्तके यहाँ के राजा, महाराजा और अमीर आदमियो के पास कोई यो ही भेज दे तो भी शायद वे उन्हें पढ़ने का कष्ट न उठावे । इमसे बहुन सम्भव है कि हमारी यह पुस्तक बे-छपी ही रह जाय । खैर ! ! 1. 'स्वाधीनता' पुस्तक का अनुवाद द्विवेदी जी ने 1905 में किया था। यह अनुवाद रचनावली के दमवे खण्ड में संकलित किया गया है । इस पुस्तक ने हिन्दुस्तानियों में स्वातंत्र्य-चेतना पैदा करने में अहम भूमिका निभाई थी। -यायावर