- जान स्टुअर्ट मिल / 229 अतएव दोनों को परस्पर एक दूसरे की आकांक्षा है। पर एक को दूसरे के काम में अनुचित हस्तक्षेप करना मुनासिब नहीं जिम काम से किसी दूसरे का सम्बन्ध नही, उसे करने के लिए हर आदमी स्वाधीन है। न उनमें समाज ही को कोई दस्तन्दाजी करना चाहिए और न गवर्नमेंट ही को। पर हाँ, उम काम से किमी आदमी का अहित न होना चाहिए। ग्रन्थ कार ने स्वाधीनता के सिद्धान्तो का प्रतिपादन बड़ी ही योग्यता से किया है। उसकी विवेचना-शक्ति की जितनी प्रशसा की जाय, कम है। उसने प्रतिपक्षियों के आक्षेपो का बहुत ही मजबूत दलीलो से ग्वण्डन किया है। उसकी तर्कना प्रणाली ग्वव सरल और प्रमाण-पूर्ण है। स्वाधीनता का दूसरा अध्याय सब अध्यायों से अधिक महत्त्व का है । इसी से वह औगे से बड़ा भी है। इस अध्याय में जो बाते है, उनके जानने की आजकल बड़ी ही जरूरत है। आदमी का सुख विशेष करके उसकी मानमिक स्थिति पर अवलम्बित न्हता है। मानसिक स्थिति अच्छी न होने से सुख की आशा करना दुगणा मात्र है। विचार और विवेचना करना मन का धर्म है । अतएव उनके द्वारा मन को उन्नत करना चाहिए। मनुष्य के लिए सबसे अधिक अनर्थकारक बान विचार और विवेचना का प्रतिबन्ध है । जिसे जैसे विचार मुझ पडे, उसे उन्हें माफ माफ़ कहने देना चाहिए। इसी में मनुष्य का कल्याण है। इसी से, जितने सभ्य देश हैं, उनकी गवर्नमेटो ने सब लोगों को यथेच्छ विचार, विवेचना और आलोचना करने की अनुमति दे रक्बी है। कल्पना कीजिए कि किमी विषय मे कोई आदमी अपनी राय देना चाहता है और उसकी राय ठीक है। अब यदि उसे बोलने की अनुमति न दी जायगी तो सब लोग उम सच्ची बात को जानने से वंचित रहेंगे। यदि वह बात या राय सर्वथा सच नहीं है, केवल उसका कुछ ही अंश मच है, तो भी यदि वह प्रकट न की जायगी-तो उस सत्यांश से भी लोग लाभ न उठा सकेंगे। अच्छा, अब मान लीजिये कि कोई पुराना ही मत ठीक है, नया मत ठीक नहीं है। इस हालत में भी यदि नया मत न प्रकट किया जायगा तो पुराने की खूबियाँ लोगों की ममझ में अच्छी तरह न आवेंगी। दोनो के गुण-दोषो पर जब अच्छी तरह विचार होगा, तभी यह बात ध्यान में आवेगी, अन्यथा नहीं। एक बात और भी है। वह यह कि प्रचलित रूढि या परम्परा से प्राप्त हुई बातों या रस्मो के विषय में प्रतिपक्षियो के साथ वाद-विवाद न करने से उनकी सजीवता जाती रहती है। उनका प्रभाव धोरे-धीरे मन्द होता जाता है। इसका फल यह होता है कि कुछ दिनो में लोग उनके मतलब को बिलकुल ही भूल जाते है और सिर्फ पुरानी लकीर को पीटा करते हैं। मिल की मूल पुस्तक की भाषा बहुत क्लिष्ट है । कोई-कोई वाक्य प्राय. एक-एक पृष्ठ में समाप्त हुए हैं। विषय भी पुस्तक का क्लिष्ट है। इससे इस अनुवाद मे हम को बहुत कठिनता का सामना करना पड़ा है । हमको डर है कि हमसे अनुवाद-सम्बन्धी अनेक भूलें हुई होंगी। अतएव हमको उचित था कि हम ऐसे कठिन काम मे हाथ न डाल पर जिन बातो का विचार इस पुस्तक में है, उनके जानने की इस समय बड़ी आवश्यकता है। अतएव मिल साहब के अनुसार जब तक कोई अनुवाद सर्वथा निर्दोष न प्रकाशित हो, तब तक इसका जितना भाग निर्दोष या पढ़ने के लायक हो, उतने ही से पढ़ने वाले
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२३३
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