पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२२७

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जनरल कुरोपाटकिन / 223 उनका उत्साह द्विगुणित हो गया। सिर्फ 300 सिपाही लेकर वे तुर्कों के एक मोरचे पर टूट पड़े और उसे विजय कर लिया। परन्तु उन 300 में से सिर्फ कुछ ही योद्धा जीते बचे । उन बचे हुओं में कुरोपाटकिन भी थे। तुर्क-रूसी युद्ध में एक बार वे घायल होकर रात भर मुर्दो के बीच में पड़े रहे । लोगो ने उनको भी मुर्दा ही समझा । परन्तु दूसरे दिन वे अपने पैरों चलकर अपनी सेना से जा मिले । उनके बदन पर अनगिनत घावों के निशान हैं। उन्होंने समर-भूमि में सैकड़ों योद्धाओं को अपने हाथ से मार गिराया है । 18 वर्ष की उम्र में कुरोपाटकिन सेना में भरती हुए थे। इस समय इनकी उम्र 56 वर्ष की है। 34 वर्ष की उम्र में वे मेजर जनरल हुए थे और अब 6 से आप रूस के ,मिनिस्टर ऑव वार' अर्थात्-युद्ध के प्रधान मन्त्री हैं । आप जापान के साथ युद्ध करने के ख़िलाफ़ थे और अब भी हैं। परन्तु उनकी राय नहीं मानी गई। जिसका फल, इस समय, रूस और लड़ने की राय देने वाले उसके युद्धप्रिय सलाहकार चख रहे हैं। कुरोपाटकिन ने जो काम किया अच्छी तरह से किया। सख्त से सख्त मिहनत से वे कभी नहीं डरे । भय क्या चीज़ है, वे जानते ही नहीं। युद्ध से फुरसत होने पर उन्होंने एशिया के उजाड और रेतीले मैदानों में हज़ारों कोस दूर का सफ़र किया और ऐमी-ऐसी बातों का पता लगाया, जिनका पता लगाना औरों के द्वारा नितान्त असम्भव था। एक बार घोड़े की पीठ पर उन्होंने 2500 मील का रास्ता तै किया। यह रास्ता ऐसे जंगलों के भीतर से था जो अगम्य समझे जाते थे, और जहाँ पद पद पर अमभ्य तातारियों से लडना-भिड़ना पड़ता था। इस काम को भी उन्होंने बड़ी योग्यता से किया । इसके अनन्तर काशग़ारिया नामक प्रदेश के ऊपर उन्होंने एक पुस्तक लिखी जो उस समय अनमोल समझी गई। उस समय तक मध्य एशिया के विषय में लोग बहुत ही कम ज्ञान रखते थे। कुरोपाटकिन की किताब से उस ज्ञान की विशेष वृद्धि हुई । उसे पढ़कर रायल ज्योग्राफ़िकल सोसाइटी ने कुरोपाटकिन को एक पदक प्रदान किया। ऐसे जनरल कुरोपाटकिन को रूस के राजेश्वर जार ने सुदूर पूर्ववर्ती देश में भेजी गई स्थल-गामिनी रूसी सेना का प्रधान नायक नियत किया। युद्ध-भूमि में आपको पहुँचे दिन । सेंट पीटर्सबर्ग से प्रस्थान करते समय, सुनते है, आपने अपनी पहली बहादुरी का स्मरण करके बहुत गर्वोक्तियाँ कही थीं। परन्तु अभी तक आपकी एक भी गर्वोक्ति सत्य नहीं निकली । आपकी सेना को जापान परास्त करता चला जा रहा है। किले और शहर, एक के बाद एक लेता चला जा रहा है; और अपने लोकोत्तर शौर्य, वीर्य तथा पराक्रम से संसार को चकित करते हुए सबके मुंह से निकले हुए प्रशंसा-पियूष से अपने कर्णरन्ध्रों को आप्लावित करता चला जा रहा है। - बहुत [जुलाई, 1904 में प्रकाशित । 'चरित-चित्रण' में संकलित।