206 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली कुछ काल के अनन्तर श्रीमती लायड इटली की राजधानी रोम नगर को गई। वहाँ थियासफ़िक सोसाइटी के पुस्तकालय की वे अध्यक्ष हुईं। उनके उद्योग से थोड़े ही दिनों में अनेक इटली-निवासी थियासफ़ी मत को मानने लगे । वहाँ उन्होंने 'रोम-लाज' नामक थियासफ़ी-सम्बन्धी एक मन्दिर बनवाया। रोम से वे फ्लोरेन्स गई और फ्लारेन्स से नेपल्स । इन नगरों में भी उन्होंने थियासफ़ी का बहुत कुछ प्रचार किया। 1900 में वे काशी आई और हिन्दू-सेंट्रल कालेज के बोडिंग-हाउस के काम- काज में सहायता देने लगीं। यद्यपि आँखों से उन्हें, दिन पर दिन, कम दिखाई देने लगा था और यद्यपि उनका शरीर भी स्वस्थ न रहता था, तथापि अपना काम उन्होंने बड़ी ही मुस्तैदी से करना आरम्भ किया। लड़कों के सब काम-काज वे स्वयं देखने भालने लगीं । इसका फल यह हुआ कि लड़के उनको बहुत प्यार करने लगे। लड़कों को अंगरेजी पढ़ने में वे प्रति दिन सहायता देती थी। कोई काम उनके लिए ऐसा न था जो लड़कों को सहायता देने और उत्साहित करने के लिए वे न कर सकती हों । सुबह और शाम, रोज़, जब वे बोडिंग-हाउस में आती थीं तब अनेक नकोरम-मूर्ति लड़के उनको घेर लेते थे। सचमुच ही वे उनकी माता थीं। इस पवित्रात्मा विदुषी ने, काशी में, जाह्नवी के तट पर, अभी कुछ ही दिन हुए, परलोक का मार्ग लिया। उनकी आत्मा परलोक को गई; उनका शरीर अग्नि ने ले लिया; और उनका पवित्र यश तथा नाम उनके हृदय में जा रहा जिनकी वे प्रीति- पात्र थी। [नवम्बर, 1903 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'वनिता-विलास' में संकलित।
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