196/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली अंठलों को तोड़कर भूसा बनाने की मशीनें अलग ही हैं । वे सैकड़ों-हजारों मन भूसा बहुत आसानी से तैयार कर देती हैं। संयुक्त देश (अमेरिका) में आलू बहुत पैदा होता है। उसे बोने के लिये भी छोटी-बड़ी कई तरह की मैशीनें काम में लायी जाती है। यहाँ तक कि घास काटने की भी मैशीनें वहाँ काम करती हैं। घास की वहाँ बहुत अधिकता है । अकेले उसकी बिक्री से वहाँ वालों को करोड़ों रुपये की आमदनी होती है। उसके गढ़े बाँधकर बाहर भेजे जाते है। भारत के शिक्षित जनों को देखना चाहिये कि कृषि का व्यवसाय कितना लाभ- दायक है। अनेक कारणों से जिनमें से कुछ का उल्लेख ऊपर हो चुका है, यहाँ अमेरिका की जैसी खेती नहीं हो सकती। तथापि जो लोग साधन-सम्पन्न हैं और जिनके पास जमीन है उन्हें दूसरों की गुलामी न करके, नये ढंग से खेती करना चाहिये । जब तक पढ़े लिखे भारतवासी इस ओर ध्यान न देंगे या कृषक-मण्डली में कृषि-विषयक शिक्षा का प्रचार न होगा तब तक देश का दारिद्र्य भी दूर न होगा। कृषि और उद्योग-धन्धो ही की बदौलत देश समृद्ध होते हैं, इस बात को न भूलना चाहिये । इसमें मन्देह नहीं कि कीमती कल खरीद करने के लिये रुपया दरकार होता है। वह यहाँ के निर्धन कृषको के पास नहीं। पर साधन और सामर्थ्यवान् जनों के पास तो है। वही क्यो न इस काम को अपने ऊपर लेकर दूसरों के लिये आदर्श बनें ? अमेरिका में भी सभी कृषक सब तरह की मशीनें नहीं रखते। वे सहयोग से काम लेते हैं। किराये पर भी वे मैशीनें लाते है-उसी तरह जैसे यहाँ गन्ना पेरने की मशीनें छोटे-छोटे कृपक भी किराये पर लाते है। अपने देश में पंजाब के परलोकवासी सर गंगाराम के काम को देखिये, उन्नत कृषि की बदौलत ही उन्होने लाखो रुपया पैदा किया और लाखों रात कर गये। ['श्रीयुत प्रामीण' नाम से दिसम्बर, 1927 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'लेखांजलि' में संकलित ।]
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