चीन में बौद्ध धर्म बौद्ध धर्म का आविर्भाव भारतवर्ष में तो हुआ, पर उसके प्रचारकों के उद्योग से वह शीघ्र ही देश-देशान्तरों में फैल गया । बौद्ध धर्म मारतवर्ष से ही चीन में गया । वहाँ उसका प्रसार कैसे हुआ, यही, संक्षेप में, नीचे लिखा जाता है। चीनी ग्रन्थो में लिखा है कि चीन के सम्राट मिंग टी ने एक विचित्र स्वप्न देखा। उसने देखा कि एक विशाल स्वर्णमूर्ति उसके राज-मन्दिर में प्रवेश कर रही है। दूसरे दिन, पूछने पर, लोगों ने उससे कहा कि आपको स्वप्न में गौतम बुद्ध का दर्शन हुआ है । तब सम्राट् ने दूत भेज कर बुद्ध की मूर्ति और धर्म-ग्रन्थ मँगवाये । उसके दूतों के साथ मातंग नामक एक भारतीय विद्वान् भी गया। उसने सूत्र के 42 प्रकरणों का अनुवाद चीनी भाषा में किया। उसकी मृत्यु चीन में ही हुई । उस समय बौद्ध धर्म के पाँच ही ग्रन्थ थे। उनमें से दशभूमिसूत्र और ललितविस्तर का अनुवाद राजा की आज्ञा से, सन् 76 में, किया गया। तब से चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार बढ़ने लगा। सन् 150 में एन-शी को नामक एक चीनी ने भी कुछ बौद्ध धर्म-ग्रन्थों का अनुवाद अपनी भाषा में किया । सन् 170 में चित्सिन ने निर्वाणसूत्र का अनुवाद किया । मन् 250 में चिमेन्ग को आचार-पद्धति-विषयक एक ग्रन्थ मिला । उसको उसी ने चीनी भाषा में लिख डाला। धर्म-रक्ष नामक एक बौद्ध श्रमण, सन् 260 मे, चीन पहुँचा । लायंग नगर में वह 265 से 308 ईसवी तक ठहग रहा। 165 बौद्ध-ग्रन्थो का अनुवाद उसने चीन की भाषा में किया। ललितविस्तर का संशोधन भी उसी से कगया गया । निर्वाण-मूत्र के चीनी अनुवाद को देख कर उसी ने उसे शुद्ध किया। मन् 300 में चि-कुंग-मिंग नामक किसी अन्य देशीय विद्वान् ने विमल-सूत्र का अनुवाद किया । 'सद्धर्मपुण्डरीक' नाम के ग्रन्थ का चीनी अनुवाद भी उसी की कृति है । सन् 335 में चीन देश के निवासियों को बौद्ध भिक्षु होने की आशा मिल गई । यह काम बौद्धसिंह नामक किसी भारतीय विद्वान् के आदेश से हुआ था । तब तक वहाँ केवल भारतीय बौद्ध ही मन्दिर बनवाते थे। पर शीघ्र ही चीन वालों ने भी मन्दिर बनवाना आरम्भ किया। 350 ईसवी में लायंग में ही पेगोडा नामक 42 मन्दिर निम्मित हुए । उनमें से कई तो नौ नौ मंज़िलों के थे। सम्राट् यको-हिग (597-415 ईसवी) ने भारतीय विद्वान् कुमारजीव को बुला कर अपने यहाँ आदरपूर्वक रक्खा । धीरे धीरे 800 बौद्ध विद्वान् एकत्र हुए । सम्राट् स्वयं उपस्थित थे । धर्म-ग्रन्थों की रचनाओं पर वचार हुआ। राजकुमार यओ-वंग और यओ-सेंग ने उनके नक़ल करने का भार उठाया। इसी समय फ़ाहियान नामक चीनी यात्री भारतवर्ष मे भ्रमण करने के लिए आया। वह सन् 415 में चीन को लौटा। तब तक वहाँ संग और वे वंश का आधिपत्य हो गया था। उनके राजत्वकाल में बौद्ध धम्मं पर आघात होने लगे। पर उससे कुछ अधिक क्षति नहीं
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