पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१६७

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कावागुची की तिबब्त-यात्रा | 163 होता है। जाड़े के दिनों में वह ढेर की ढेर मिट्टी की गोलियां बनाता है। उन सबको वह मन्त्रों से पवित्र करके किसी पहाड़ी या ऊँची जमीन पर, एक मन्दिर में, रखता जाता है । ग्रीष्मकाल आते ही पुजारी उस मन्दिर में जाकर रहने लगता है और दिन-रात पूजा- अनुष्ठान किया करता है । जब आकाश मेघों से आच्छन्न हो जाता है और वर्षा होने की सम्भावना होती है तब पुजारी उस मन्दिर के बाहर निकल आता है और बादलों को भगाने की इच्छा से क्रोध-पूर्वक उस पहाड़ से लड़ने का भाव दिखाता है। यदि बादल इस पर भी छिन्न-भिन्न नहीं होते और ओले गिरने लगते हैं, तो पुजारी क्रोध से पागल हो जाता है । वह चारों ओर नाचता है और चिल्लाता है। यदि ओलों का गिरना तब भी बन्द न हुआ तो उसकी क्रोधाग्नि और भी प्रदीप्त हो उठती है । तब वह उन्ही मिट्टी की गोलियों को लेकर बड़े जोर से आकाश की ओर फेंकता है और अपने कपड़ों के टुकड़े- टुकड़े कर डालता है । यदि ओलों का गिरना बन्द हो गया तो उसे बड़ी खुशी होती है। लोग उसे बधाई देने आते हैं और अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं। यदि ओले बराबर गिरते रहे तो पुजारी को जुरमाना भी देना पड़ता है। जिस साल ओले नहीं गिरते, या उनके गिरने से फ़सल की बहुत हानि नहीं होती, उस साल सब लोग उस पुजारी को, राजाज्ञा के अनुसार, 'टेक्स' भी देते हैं । ['धजपाणि' नाम से जनवरी एवं मार्च 1914 की 'सरस्वती' में प्रकाशित । असंकलित।]