युद्ध-सम्बन्धी अन्तर्जातीय नियम / 141 और चीन ने दूसरी अगस्त को की थी। ऐसी ही बात गत रूस-जापान युद्ध में भी हुई थी। 6 फरवरी 1894 को रूस और जापान का राजनैतिक सम्बन्ध टूट चुका था। तदनन्तर रूसियों की तरफ से कुछ छेड़छाड़ भी हुई। परन्तु जापान ने युद्ध की घोषणा 11 फ़रवरी 1904 को की। जो सैनिक अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर लड़ने के लिए तैयार रहते है वही युद्ध में शरीक योद्धा समझे जाते हैं । युद्ध के नियमों के अनुसार शत्रु-बल के योद्धा मारे जाने और शरीर-दण्ड पाने के पात्र समझे जाते है । शरण में आने पर वे युद्ध के कैदी समझे जाते है । और वैसा ही व्यवहार भी उनके साथ किया जाता है। 1874 मे ब्रसेन्म की सभा में तै पाया था कि वही लोग योद्धा समझे जायँ जो किसी ज़िम्मेदार अफसर के नेतृत्व में हो, युद्ध के नियमों को जानते हो और किसी विशेष चिह्न से पहचाने जा सकते हो। कुछ विशेष अवस्थाओं को छोडकर अन्य मब अवस्थाओं में शरण चाहने वाले शत्रुदल के योद्धाओ को शरण अवश्य दी जाती है। परन्तु शरण मिल जाने ही से शत्रु के योद्धा द से नही बच सकते । यदि शत्रु ने स्वयं ही युद्ध के नियम तोड़े हैं अथवा अपने विपक्षियों को शरण न देने की सम्मति प्रकट की है तो उसके योद्धाओं को भी दण्ड मिलता है । शत्रु यदि कोई ऐसा कठोर या नृशंस काम करता है जिसका बदला देना आवश्यक समझा जाता है तो इस कारण भी शरण में आये हुए उसके योद्धा दण्ड के पात्र समझे जा सकते है। गत चीन-जापान युद्ध में जापान ने शरण चाहने वाले शत्रु दल के प्रत्येक सैनिक को शरण दी थी । परन्तु एक दुर्घटना अवश्य हुई थी। वह यह थी कि पोर्ट आर्थर पर जापानियों का अधिकार हो जाने के बाद चार दिन तक नर हत्या हुई थी तथापि जापानियो के कथनानुसार उनके योद्धाओं ने यह नृशंसता नहीं की थी. किन्तु उनकी सेना के कुलियो ने शराब के नशे में की थी। रोगी और घायल सैनिकों की-चाहे के किसी दल के हों-उचित शुश्रूषा को जाती है । जब तक वे अस्पतालो अथवा अस्पताली जहाजो मे रहते है तव तक वे किसी दल के नही समझे जाते । जितने डाक्टर घायलो की सेवा के लिए नियत रहते हैं वे भी किसी पक्ष के नहीं समझे जाते। दोनों पक्ष उनकी रक्षा के लिए एक से वाध्य है। अस्पतालो पर भी आक्रमण नहीं किया जाता । गत रूस-जापान युद्ध में जापानियो का व्यवहार अपने रूसी कैदियों के प्रति साधारणतः, और उनमें से जो रोगी अथवा घायल थे उनके प्रति मुख्यतः, बहुत ही अच्छा था। यूरप और अमेरिका वालों तक ने जी खोल कर जापान के इस सद्व्यवहार की प्रशंशा की । जापानियों के इस सद्व्यवहार की एक घटना का यहाँ उल्लेख कर देना अनुचित न होगा । कीनलीनयेंग के युद्ध में एक रूसी सैनिक की आँखें घायल हो गई। वह अपने एक साथी की सहायता से सेना के बाहर निकल आया। इतने ही में अचानक दो जापानी सैनिक घायलों की सेवा-शुश्रूषा करने वाले सेवक-समुदाय की झण्डी लिए हुए उस जगह पर पहुँचे । एक जापानी ने पिस्तौल द्वारा संकेत करके घायल रूसी के साथी से चले जाने को कहा। जब वह चला गया तब दोनों ने मिलकर घायल रूसी सैनिक की आँखें धोई, उन पर पट्टी चढ़ाई और तत्पश्चात्
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