- महाभारत ग्रन्थका काल *
- - और मनुस्मृति सब महाभारतके अनन्तरके अग्नि और सूर्य भी वेद-कर्ता है। पहले हैं। अब वेद और उपनिषदके सम्बन्ध पहल ब्रह्माने वेदका पठन किया, यथा विचार किया जायगा । यथार्थमें यह "स्तुत्यर्थमिह देवानां वेदः सृष्टः स्वयंभुवा" निश्चित है कि ये ग्रन्थ महाभारतके पह- (शांति पर्व अध्याय ३२८)। पद और क्रम- लेके हैं। ऐसी अवस्थामें यदि इनका का भी उल्लेख पाया जाता है। जैसे अनु- उल्लेख महाभारतमें पाया जाय तो कुछ शासन पर्वके ८५ वें अध्यायमें कहा गया आश्चर्य नहीं । यद्यपि इन ग्रन्थोंका समय है,-"ऋग्वेदः पदक्रमविभूषितः” । वाम- निश्चयात्मक रीतिसे स्थिर नहीं हुआ देवकी शिक्षासे बाभ्रव्य गोत्रोत्पन्न पाञ्चाल है, तो भी कहा जा सकता है कि वह गालव बहुत अच्छा क्रमपाठी होमया था। समय ईसवी सन्के पहले ३०० वर्षके ऋग्वेदकी इक्कीस हज़ार, यजुर्वेदको एक इस पारका नहीं है। ऐसी दशामें यह सौ एक और सामवेदकी एक हज़ार विचार प्रायः विषयान्तरके समान ही है। शाखायें हैं । संहिता, ब्राह्मण और परन्तु इस समालोचनात्मक ग्रन्थकी प्रारण्यकका भी उल्लेख पाया जाता है। पूर्सिके लिये, इस विषयका भी कुछ संहिताध्यायी शब्दका उपयोग आदि पर्व- उल्लेख किया जाना आवश्यक है। अत- के १६७ वें अध्यायमें और अनुशासन पर्व- एव हाप्किन्सके ग्रन्थकी ही सहायतासे के १४३ वें अध्यायमें किया गया है। यहाँ संक्षेपमें कुछ विचार किया जायगा। ब्राह्मणोका उल्लेख शान्ति पर्वके २६६ यह प्रकट है कि श्रुतिके सव ग्रन्थ महा- अध्यायमें और वन पर्वके २१७ वें अध्याय- भारतके पहले पूरे हो गये थे। अब यह में पाया जाता है। वहाँ ब्राह्मणोंमें वर्मित देखना चाहिये कि इन ग्रन्थों से किन भिन्न भिन्न अग्नियोंका उल्लेख है। याज्ञ- किनका नाम-निर्देश महाभारतमें है। चारों वल्क्यके शतपथ ब्राह्मणका उल्लेख सम्पूर्ण वेदोका नाम-सहित उल्लेख किया गया है, नाम-सहित किया गया है: अर्थात शान्ति- परन्तु कहीं कहीं अथर्व वेदका नाम छूट पर्वके ३२६ वें अध्यायमें सरहस्य, ससं- गया है। प्रायः ऋग्वेदसे ही गणनाका · ग्रह, सपरिशेष उल्लेख है। अन्य ब्राह्मणों- प्रारम्भ होता है। कहीं कहीं सामवेदको के उलखमें साधारण तौर पर "गद्यानि, भी अग्रस्थान दिया गया है । इन चारोंको शब्दका उपयोग किया गया है। पारण्य का मिलाकर चतुर्मूर्ति-वेद होता है। कहीं उल्लेख अनेक स्थानोंमें है: जैसे 'गायन्त्या- कहीं चातुर्विद्य नाम भी पाया जाता है; रण्यके विप्राः', 'भारण्यक पदोद्भूताः' परन्तु विद्य नामका उपयोग अधिकतासे इत्यादि । श्रारण्यकको वेदोका तत्व-भाग • किया गया है । वेदोंके नष्ट होनेकी और भी कहा है । यह भी उल्लेख है कि 'वेद- , उनके विभाग किये जानेकी बात प्रसिद्ध वादानतिक्रम्य शास्त्राण्यारण्यकानि च।' है।प्रारम्भमें एक ही वेद था; परन्तु कृतयुग- उपनिषदोका उल्लेख एक वचनमें, बहु- के अनन्तर त्रिवेद, द्विवेद, एकवेद, अनक्, वचनमें और समूहार्थमें किया गया है। प्रादि भेद हो गये । अपान्तरतमा ऋषिने । जैसे आरण्यकका उल्लेख वेदसे मित्र वेदोंके भेद किये । कहा गया है कि किया गया है, वैसे ही उपनिषदोका वेद दृष्ट, कृत अथवा सृष्ट है । "मन्त्र- उल्लेख भी वेदसे भिन्न किया गया है। ब्राह्मणकर्तारः" इस प्रकार हरिवंशमें उपनिषद्का अर्थ साधारण गतिसे कहा गया है। वेदोंका कर्ता ईश्वर है। रहस्य अथवा गुह्य भी किया गया