पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/७८

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महाभारतमीमांसा

५२ ॐ महाभारतमीमांसा किसी कालका निर्देश करनेके लिये उसमें प्रमाण है, इसलिये इस प्रन्यके अन्तिम नक्षत्रोंका ही उपयोग किया है। अमुक निर्माण-कालके सम्बन्धमें निश्चय होता है मकान पर अमुक काम किया जाय; मैं कि वह प्रीक राजा मिनण्डर (मिलिन्द) अमुक नक्षत्र पर गया; मैं अमुक नक्षत्र | के समयका अर्थात् ईसवीसन्के १४५ वर्ष पर लौट आया. इत्यादि वर्णन जैसे महा- पहलेका होगा। इस संहितामें भी राशियों- भारतमें हैं वैसे ही त्रिपिटकमें भी देख का नाम नहीं है। इसलिये यह मानना पड़ते हैं। पड़ेगा कि ईसवी सन्के पहले १४५ वर्षके पुष्येण संप्रयातोऽस्मि श्रवण पुनरागतः। अनन्तर राशियोंका प्रचार हुश्रा है। अर्थात् “मैं पुष्य नक्षत्र पर गया और सारांश, ईसवी सन्के पहिले ४४५ वर्षको श्रवण पर लौट आया" बलरामके इस राशियोंके प्रचलित होनेका समय किसी वायके समान ही नक्षत्रोंके उल्लेख त्रिपि- प्रकार नहीं मान सकते। रकमें भी पाये जाते हैं। इस बात पर भी उक्त विवेचनसे मालूम होगा कि ध्यान देना चाहिये कि वर्तमान समयमें सौतिके महाभारतकी अर्थात् एक लाख राशियोंका उपयोग लग्न और संक्रान्तिके श्लोकोंके वर्तमान महाभारतकी दोनों ओर- समय बार बार किया जाता है । लग्न और की ( अर्थात् उस ओरकी, यानी दूरसे संक्रान्ति राशियों पर ही अवलम्पित हैं। दुरकी, और इस पोरकी, यानी समीपसे इस वनो और संक्रान्तियोंका उल्लेख त्रिपि- समीपकी) काल-मर्यादा इस प्रकार टकमें नहीं है। त्रिपिटकोका समय निश्चित निश्चित हुई है। (१) बाह्य प्रमाण- सन ४४५ ईसवीके महाराज "सर्वनाथ" की मृत्यु हुई और उसके अनन्तर अशोक के शिलालेखमें "शत साहस्त्र्यां भारती के समयतक बौद्ध ग्रन्थ बने हैं। तब यह संहितायां यह उल्लेख पाया जाता है। माननेके लिये स्थान है कि राशियोंका यह इस ओरकी अर्थात् समीपसे प्रचार अशोकके बाद हुआ होगा। दूसरी समीपकी अन्तिम मर्यादा है । (२) इसके बात यह है कि सरस्वती-आख्यान (अध्याय भी पहले हिन्दुस्थानमें आये हुए प्रीक ३७, शल्य पर्व) में गर्ग ऋषिका उल्लेख इस वक्ता डायोन क्रायसोस्टोमके लेखमें एक प्रकार है: तपश्चर्याक योगसे वृद्धगर्ग मुनि- लाख श्लोकोंके इलियडका जो उल्लेख है ने सरस्वतीके पवित्र तट पर काल शान-। वह दूसरी मर्यादा है । इस दूसरं बाह्य गति, ताराओकी स्थिति और दारुण तथा प्रमाणसे महाभारतका निर्माण-काल सन् शुभकारक उत्पातका ज्ञान प्राप्त किया।" ५० ईसवीके इस ओर आ ही नहीं सकता। यह गर्ग कोई दूसरा व्यक्ति होगा । गर्ग (३) राशियोंके उल्लेखका प्रभाव भी एक पाराशर नामके एक ज्योतिषीका उल्लेख प्रमाण है। दीक्षितके मतानुसार ईसवी पाणिनिके सूत्रोंमें पाया जाता है। इस सनके पहले ४४५ के लगभग राशियोंका गर्गसे यह गर्गमित्र होगा, इसीलिये जान प्रचार हुआ है; परन्तु हमारी राय है कि पड़ता है कि इसे 'वृद्ध गर्ग' कहा है । इस यह प्रचार ईसवी सन्के पहले २०० के समय गर्गसंहिता नामका जो प्रन्थ उप- लगभग अथवा १५० के लगभग हुआ है। तब्ध है वह इसीका बढ़ाया हुआ होगा; यह तीसरी मर्यादा है,अर्थात् इसके पहले अथवा ऐसा न हो । इसमें यवनोंके महाभारतका निर्माण-काल होना चाहिये। द्वारा साकेत (अयोध्या) के घेरे जानेका उल्लेखका प्रभाव कुछ कमजोर प्रमाण है