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महाभारतमीमांसा

® महाभारतमीमांसा. निक हैं । यह दुर्दैवकी बात है कि कार- निकालती; और यदि निकालती भी तो यह प्रिय कवियों तथा हास्यप्रिय कथक्कड़ोंने उसके लिए उपयोगी हीन होता । अतएव उन्हें खूब बढ़ाया है और उन पर सत्यका यह निर्विवाद है कि इस नाममें गोपियों- भाभास ला दिया। परन्तु यह कभीका विषयातीत भगवत्प्रेम ही गर्भित है। सम्भव नहीं कि, दूसरे, राजसूय-यशमें अर्घ्य लेनेके प्रसा- त्रिविधं नरकस्येदं में शिशुपालने श्रीकृष्णकी खूब ही निन्दा द्वारं नाशनमात्मनः । की; परन्तु वहाँ उसने यह आक्षेप कामः क्रोधस्तथा लोभ- कभी नहीं किया। तीसरे, यह प्रसिद्ध स्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ है कि श्रीकृष्ण बचपनसे ही मल्लविद्याके इस प्रकार उदात्त उपदेश देनेवाला शौकीन थे। कुश्ती लड़नेके लिए कंसने श्रीकृष्ण, बचपनमें ही क्यों न हो, उन्हें मथुरामें बुलाया था। यह अकाव्य निन्ध कामाचारमें फँसे अथवा युवा- सिद्धान्त है कि ऐसे बालमल्लको कामका वस्थामें लोभके अधीन हो। यद्यपि ये व्यसन कभी नहीं हो सकता। ईश्वरकी कलङ्क निर्मूल हैं तथापि लोगोंकी कल्पना- कल्पना रखने पर चाहे जो सम्भावना से श्रीकृष्णके चरित्रमें लगाये जाते हैं। हो सकती है: परन्तु श्रीकृष्णने अपने ये दोनों दोष निराधार हैं, समझकी अवतारमें मानवी कृत्य ही कर दिखाये कमीके कारण पीछेसे गढ़े गये हैं। हम हैं। उन्होंने ईश्वरी सामर्थ्यका उपयोग नहीं संक्षेपमें उनका दिग्दर्शन यहाँ करेंगे। किया और यदि कहीं किया हो तो निन्द्य काममें तो निःसन्देह कहीं नहीं किया। गोपियोंकी केवल-भक्ति। | सारांश यह है कि सभी दृष्टियोंसे विचार श्रीकृष्णके समयमें यह दोष उन पर करने पर यही कहना होगा कि यह कभी नहीं लगाया गया था कि उन्होंने दोष सञ्चा नहीं है। वर्तमान महाभारतके गोपियोंसे अश्लाघ्य व्यवहार किया हो; समयतक यही धारणा थी कि गोपियाँ गोपियाँ श्रीकृष्णसे जो प्रेम करती थी वह श्रीकृष्णका केवल निर्विषय प्रेम करने- निर्व्याज, विषयातीत और ईशभावनासे वाली परम भक्ता थी। परन्तु धीरे धीरे युक्तथा । यही कल्पना महाभारतमें दिखाई भक्तिमार्गमें जब भक्तिकी मीमांसा होती देती है। महाभारतको वर्तमान स्वरूप ई० गई तब सम्भव है कि भक्तिको उस प्रेम- सनसे लगभग २५० वर्ष पूर्व मिला।। की उपमा दी गई हो जो असतीका जार- उस समयतक यही कल्पना थी। वन-से रहता है और जैसाकि भवभूतिने कहा हरणके समय द्रौपदीने श्रीकृष्णकी जो है-“यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे पुकार की थी उसमें उसने उन्हें 'गोपी- दुर्जनो जनः" जैसी स्त्रियोंके सम्बन्धमें यह अन प्रिय' नामसे सम्बोधित किया था। कल्पना प्रचलित हुई होगी; और जगत्में स्पष्ट है कि इस नामका अभिप्राय यही भ्रमपूर्ण विचार उत्पन्न होनेसे हमेशा है कि वह दीम अबलाओंका दुःखहर्ता ऐसा हुश्रा ही करता है । श्रीकृष्णका मत है। उस नाममें यदि निन्द्य अर्थ होता प्रवृत्तिके अनुकूल है, इससे इस प्रवाद. तो सती द्रौपदीको पातिवत्यकी परीक्षाके को पुष्टि मिली होगी और रासलीलाके समय उसका स्मरण नहीं होता; यदि वर्णनसे वह और भी बढ़ा होगा। इस होता भी तो वह उसे मुखसे कदापि न प्रकार यह प्रवाद पीछेसे उत्पन्न होकर