ॐ भगवडीता-विचार । ® ५६५ "कार्याकार्य, भयाभय जानती है। इसका इस प्रकार समाधान करते हैं कि तात्पर्य यह कि अपना कर्तव्य निश्चित इस लोकमें नहीं तो अन्य लोकमें, इस करनेके लिए यदि शास्त्रको आवश्यकता जन्ममें नहीं तो अन्य जन्ममें, धर्मका फल न हो तो उसे अपनी सदसद्विवेक बुद्धिसे सुख और अधर्मका फल दुःख मिले बिना निश्चित करना चाहिए । इसके सम्बन्धमें नहीं रहेगा : किन्तु यह समाधान भटके पाश्चात्य परिडत कदाचित् सहमत होंगे। आधार पर रचा गया है, इससे यह कोरा श्रीकृष्णके कर्मयोगमें एक और विशेषता जान पड़ता है। विहित कर्म करने पर यह है कि मनुष्यको चाहिए कि वह यदि वह सिद्ध नहीं होता तो उसका कर्तव्य कर्म करे, परन्त इस बातका घमंड विहितत्व ही कहाँ रहा? यह सिद्धान्त न करे कि उसके कर्मकी सिद्धि होनी हो सञ्चा है कि मनुष्य धर्म पर निष्काम प्रेम चाहिए । श्रीकृष्णका कर्म-सिद्धान्त है कि करके कर्म कर, आगामी सुखरूपी आशा- मनुष्य इस भावनासे कर्म करे कि मैं के लिए न करे; पर यह सिद्धान्त युक्तिसे अपना कर्तव्य करता हूँ, वह सिद्ध हो या नहीं मिलता । एक प्रसङ्गमें द्रौपदीने यही म हो । उसमें कर्मयोगकी प्रारम्भमें ही प्रश्न किया था: तब धर्मराजने उत्तर दिया- व्याख्या की गई है कि “सिद्ध्यसिद्ध्यौ । “सुन्दरी* मैं जो धर्मका आचरण करता समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।" हूँ वह धर्मके फलकी ओर दृष्टि देकर नहीं मनुष्यको चाहिए कि वह सिद्धि और : करता। धर्मका व्यापार करनेकी इच्छा असिद्धि समान मानकर अर्थात् फल पर करनेवाला हीन मनुष्य धार्मिकोंके बीच में लक्ष्य न देते हुए अपना कर्तव्य करे। आखिरी दर्जेका मनुष्य समझा जाना श्रीकृष्णका उपदेश है कि-"तस्मादसक्तः चाहिए।" यह उत्तर ठीक है। पर इस सततं कार्य कर्म समाचर ।" यहाँ कदा- उत्तरसे तार्किकोंका समाधान नहीं होता। चित् श्रीकृष्ण और पाश्चात्य पण्डितोंका श्रीकृष्णने इस प्रश्नका बड़ा ही मार्मिक मतभेद होना सम्भव है। । उत्तर दिया है। कर्मका फल त्रिविध है- इष्ट, अनिष्ट या मिश्र । परन्तु यह किसके फलकी लालसाका त्याग। लिए है? जिसकी नजर फल पर है, यह यहाँ सहज ही प्रश्न उठता है कि यदि उसीके लिए है। जिसने फलका त्याग बात ऐसी है, तो कर्तव्याकर्त्तव्यका निश्चय किया, उसे चाहे जो फल मिले सबसमान करनेवाले धर्मका अधिष्ठान क्या है ? यदि : ही हैं। इसके सिवा मनुष्य जो कुछ कर्म शुद्ध भावनासे विहित कर्म करने पर भी करता है, उसके फलके लिए पाँच कारणों- मनुष्यको उसकी सिद्धि न मिलेगी तो की आवश्यकता होती है। अधिष्ठान, कर्ता, विहित आचरणसे लाभ ही क्या ? अत- कारण, विविध चेटा और दैव अथवा एष यह कहने में तनिक भी असमंजस ईश्वर-इच्छा। इससे जान पड़ता है कि नहीं कि यहाँ पर धर्मका मुख्य आधार ही कर्मके फलको देनेवाली कुछ ऐसी बातें नष्ट हो जाता है। यह प्रश्न भी अनादि हैं जो अपने अधीन नहीं रहती। अर्थात् है। जगतमें यह बड़ा भारी गूढ रहस्य है कि कर्मका फल अपने ही कर्तृत्व पर प्रव- धार्मिक वृत्तिके लोग जगत्में दुस्खी रहते | ... हैं और अधार्मिक और दुष्ट लोग बराबर . धर्म चरामि सुश्रोणि न धर्मफलकारणात् । धर्मवाणिज्यको होनो जघन्यो धर्मवादिनाम् ।
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