ॐ भगवीता-पिचार । * ५३ सगी इससे भी बहुतसी अपढ़ ही रही। गति प्राप्ति करेंगे । स्वभावतः श्रीकृष्णका ऐसे बड़े जनसमूहके लिए यह, संन्यास यह भक्ति-मार्ग धीरे धीरे और मागौंको या योग-मार्ग बन्द होगये। उस समय यह ! पोछे हटाता हुआ भरतम्बगडमें आने प्रश्न बड़े जोरके साथ सामने आया कि बढ़ा और उसकी श्रेष्ठता आज सारे भरत. इस स्थिति प्रक्षानी लोगोंके लिए परम- खण्डमें दिखाई देती है। 'रामः शस्त्रभृता. पदकी प्राप्ति सम्भव है या नहीं ? ब्राह्मण महं' और 'वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि में तथा क्षत्रियोका तो यह मत था कि ये बताई हुई दो विभूतियोंकी भक्ति आज लोग मोक्षके लायक नहीं हैं । सामान्य हिन्दुस्थानमें सर्वत्र प्रचलित है । यही जनसमूह पर श्रीकृष्णका अत्यन्त प्रेम नहीं, किन्तु उसने यज्ञ, तप, संन्यास था। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि धर्म-श्रादि मार्गोको भी पीछे हटा दिया है। राष्टिसे उन्हींका उद्धार रखनेके लिए श्री- इससे यह सहज ही ध्यानमें आ सकता कृष्णका अवतार हया था। उनका बच-है कि हिन्दुस्थानके लोग श्रीकृष्णको क्यों पन खियो, वैश्यों और शूद्रों में ही व्यतीत इतना पूज्य मानते हैं । वेदान्त सूत्र अब. हुमा था। उन्होंने अपनी आँखोसे देखा तक यही कहता है कि केवल ब्राह्मण और था कि ये लोग अपने इष्टदेवपर कैसा वे भी संन्यास लेने पर-मोक्ष प्राप्त निःसीम और निष्काम प्रेम रखते हैं। कर सकेंगे । मुसलमानोंके धर्मोपदेशक इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसी स्थितिमें कहते हैं कि मोक्ष प्राप्त करना मुसल- उन्होंने इस उदात्त मतका प्रतिपादन मानोंके ही भाग्यमें है औरोंके नहीं, और किया कि परमेश्वरका या उसकी किसी ईसाई धर्मोपदेशक कहते हैं कि ईसा दव्य विभतिका निरतिशय प्रेम करने-ईसाइयोका ही उद्धार करेगा. इसरोका से और उसकी भक्ति करनेसे ये लोग नहीं। परन्तु श्रीकृष्णने भगवद्गीतामें इस मोक्ष प्राप्त करेंगे । भक्ति-मार्गका उदात्त तत्वका प्रतिपादन किया है कि रहस्य अर्जुनको समझाते हुए उन्होंने मनुष्य चाहे किसी जाति अथवा मतका भगवद्गीतामें स्पष्ट कहा है कि भक्ति- क्यों न हो, वह परमेश्वरकी किसी विभू. मार्गले त्रियाँ, वैश्य, शुद्र बल्कि चांडाल तिकी भक्ति करनेसे मोक्षपदको प्राप्त कर भी परमगतिको जायेंगे। उस समय सकता है। यह कहने में कुछ भी अत्युक्ति नहीं समाजमें दो कोटियाँ नजर आती थी- कि भक्ति-मार्गका अथवा 'रिलिजन आफ पुण्यवान् ब्राह्मण तथा भक्त राजर्षि । एक डिवोशन' (Religion of Devotion) संन्यास और तपके अभिमानी थे, तो का उदात्त स्वरूप जैसा श्रीकृष्णके भक्ति- दूसरे बड़े बड़े अश्वमेध श्रादि यज्ञोंके मार्गमें दिखाई देता है, वैसा अन्यत्र कहीं अमिमानी थे। उनकी यह धारणा थी नहीं दिखाई देता। इस स्वरूपकी पराकाष्ठा कि हम ही मोक्ष प्राप्त करेंगे, दूसरे तुकाराम, तुलसीदास आदि संतोने की नहीं। पहलेसे ही पुण्य-मार्गमें लगे हुए है । 'सततं कीर्तयन्तो मां नित्ययुक्ता ये लोग ईश्वरकी भक्ति कर परमगतिको उपासते' की मनोहर साक्षी अयोध्या, प्राप्त होंगे ही, परन्तु श्रीकृष्णने छाती मथुरा, वृन्दाबन या पंढरपुरको छोड़ ठोककर कहा कि स्त्री, वैश्य,शद्र, चांडाल अन्यत्र कहीं न मिलेगी। श्रीकृष्णने अपने प्रादि वे अक्षानी लोग भी जो मोक्षके उदास तत्वोंके इस भक्ति-मार्गका उपदेश मार्गसे दूर किये गये थे, भकिसे परम- जबसे अर्जुनको पहलेपहल दिया है तबसे' ७५
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