• भगवाता-विचार । --- - -- - उसका स्याग न करे। इसी प्रकार उनमें कोरी निवृत्तिके स्वरूपकी परमावधि प्राजन्म अविवाहित रहनेवाले और हो गई। फिर ल्यूथरके समयसे ईसाई शारीरिक तप करके आध्यात्मिक सामर्थ्य धर्म प्रवृत्तिकी ओर झका। उस समय को बढ़ानेवाले संन्यासी अथवा मांक यह प्रस्थापित हुआ कि योग्य रीतिसे (monk) होने लगे थे। इन्द्रियों पर जय प्रवृत्तिका स्वीकार करना अधर्म नहीं है। प्राप्त करनेवाले तपस्वीका मनोनिग्रह | तब प्राटेस्टेट मत फैलने लगा । यह कहने- इंद्रियाधीनों पर हमेशा जय लाभ करता में कोई हर्ज नहीं कि आजकल यह मत है। अर्थात् निवृत्ति-प्रधान ईसाई धर्मकी दूसरी ओर यानी प्रवृत्तिके परमोच्च बिंदु. प्रभुता, सब प्रकारकी अनीतिसे बिगड़े की ओर जाना चाहता है। पाश्चात्य हुए ग्रीक और रोमन लोगों पर, सहज लोगोंकी आधुनिक भौतिक उन्नति और ही प्रस्थापित हो गई और उनमें ईसाई आधिभौतिक सुखोकी लालसाका ध्यान धर्म बहुत शीघ्र फैल गया। करनेसे यह कहा जा सकता है कि पाश्चात्य यह निवृत्ति-प्रधान वृत्ति मूलतः ईसाई समाजका लंगर (पैण्डुलम) प्रवृत्तिके पर- धर्ममें नहीं थी । ईसाका मत ज्यू लोगोंके | मोच्च बिंदुकी ओर जा रहा है। निवृत्तिपूर्ण श्राचारोंके विरुद्ध था । ये लोग भरतखंडका वही इतिहास। उपवास कर अपने देवताओंको संतुष्ट करते थे। वे मानते थे कि मद्यमांस- पाश्चात्य लोगोंके उपर्युक्त अति संतिम का त्याग कर और अविवाहित रहकर इतिहाससे पाठकगण कल्पना कर सकते देवताकी भक्ति करना ही मुक्ति-मार्ग है। हैं कि मनुष्य-समाज प्रवृत्ति और निवृत्ति. ईसा उनके विरुद्ध था। के बीच कैसा अान्दोलित होता है और कर्षयन्तः शरीरस्थं दोनों वृत्तियोको समतोल रखकर उनका भूतग्राममचेतसः। उचित रीतिसे सदैव उपयोग करना मां चैवान्तः शरीरस्थं मनुष्य-समाजके लिए कितना कठिन है। तान्विंद्ध्यासुरनिश्चयान ॥ इतिहासकी समालोचनासे मालूम हो ईसाका मत गीताके उक्त वचनके : जायगा कि हमारे देशका जन-समाज भी समान ही था, परन्तु धीरे धीरे ईसाई पहले ऐसे ही झकोरे खाता रहा है। धर्ममें भी निवृत्तिका आडम्बर बढ़ने लगा प्राचीन कालके आर्योंके परम पूज्य और मठ-संस्थाएँ स्थापित होने लगी । ईसा ऋषियोंकी आश्रम-व्यवस्थासे स्पष्ट दिखाई इयों में यह बन्धन तुरन्त ही कर दिया गया देता है कि वे इन दोनों वृत्तियोंका योग्य कि ईसाई धर्मोपदेशक विवाह न करे: आश्रय लेकर रहतेथे । दोश्राश्रम प्रवृत्ति- इतना ही नहीं, किन्तु सैंकड़ो और हजारों के थे और दो निवृत्तिके। उनका रहन- पुरुष तथा स्त्रियाँ संसारको त्याग मांस सहन "यौवने विषयैषी" तथा "वार्धके और मन्स (Monks and Nuns) यानी मुनिवृत्ति" था । परन्तु ऋग्वेदकालके जोगी और जोगिन होने लगी ! कुछ समय- अन्त में प्रवृत्तिकी प्रबलता हुई। यज्ञयागादि के बाद निवृत्तिका यह स्वरूप सत्वहीन क्रियाएँ अति परिश्रम-साध्य तथा अधिक हो गया । सञ्ची विषय-पराङमुखता नष्ट | व्ययसाध्य हुई। ब्राह्मणों और क्षत्रियों- हुई और केवल ढोंग रह गया। अनेक ने बड़े ठाठबाटसे यज्ञ करके स्वर्ग-सुख प्रकारके अनाचार फैल गये । आखिर इस प्राप्त कर लेनेको ही अपनी इतिकर्तव्यता
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