पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६१३

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ॐ भगवनीता-विचार । * ५५ वैसे ही उच-नीच गतिका प्रकार, इस कोई समाज केवल प्रवृत्ति-परायण बन जगत्में, हमेशाके लिए बना रहेगा। जिस जाता है, या उसमें निवृत्तिका ही बड़ा प्रकार अभी हालमें सुधारके शिखर पर आडम्बर होता है, या जो शुष्क निवृत्ति. पहुँचे हुए यूरोप महाद्वीपमें एक मनुष्य के चकरमें पड़ जाता है तब वह समाज के दुराग्रहसे भयङ्कर रणसंग्राम मचा था, अधोगामी होने लगता है। जो समाज वैसे हो नीति, शौर्य, विद्या आदिमें या व्यक्ति भौतिक सुखमें लिप्त हो जाता सुसंस्कृत हो परमोच्च पदको पहुँचे हुए है उसकी अवनति अवश्यम्भावी होती प्राचीन भारतवर्ष में, श्रीकृष्णके समयमें है। इसके विपरीत इच्छारहित या आशा- मी, एक मनुष्यके हठसे भयङ्कर युद्धका रहित अवस्था में रहना समाज या व्यक्ति- प्रसङ्गा पड़ा और उस युद्धसे भारत के लिए सम्भव नहीं । सारांश, मनुष्यको वर्षकी अवनतिका प्रारम्भ हुआ। हमारी चाहिए कि वह अपनी उन्नतिके लिए यह धारणा है कि भारती-युद्धसे कलियुग- आधिभौतिक और आध्यात्मिक दोनों का प्रारम्भ हुआ और युद्धमें ही कलि- गुणोंका उचित उपयोग करे। भारतीय युगका बीज है। हजारों नहीं, लाखों पार्यो में उस समय उत्साह, तेज, उद्योग, मनुष्य अपनी शूरता तथा विद्याके कारण साहस आदि प्राधिभौतिक अथवा प्रवृत्ति- उस युद्ध में मृत्युको प्राप्त हुए और देशकी के सद्गुण तथा धर्म, नीति, तप, अना- मनुष्य-संख्या घट गई। यद्यपि एक दृष्टि- ' सक्तता आदि प्राध्यात्मिक अथवा निवृत्ति- ने यह बात कुछ लाभदायक हुई, तथापि के सद्गुण एक समान थे। और, इसीले अन्य रट्रिमे दुर्बलता तथा उसको वे उस समय उन्नतिके परमोच्च शिखर अनुगामिनी अनीतिका वर्चस्व देशमे । पर पहुंचे थे। परन्तु भारती-युद्ध के समय शनैः शनैः फैलने लगा। भारतीय पार्य- इन गुणोंको समानतामें कुछ फरक पड़ गण जिस परमोश्च पद पर पहुंचे थे। गया। एक ओर प्रवृत्तिकी प्रबलता हुई उसके लोपकी कुछ अधिक मीमांसा तो दूसरी ओर निवृत्तिका आडम्बर होने करनी चाहिए, क्योंकि इसी में श्रीकृष्णके : लगा। प्रवृत्तिकी प्रबलताका पहला परि- दिव्य चरित्र तथा उपदेशका रहस्य णाम लोभ है। ऐसे समय मनुष्यमें यह छिपा हुआ है। इच्छा पैदा होती है कि जगतकी हर एक वस्तु मुझे मिलनी चाहिए। वह मानने प्रवृत्ति और निवृत्तिका उचित लगता है कि जगतमें जितना धन है, उपयोग। जितनी भूमि है और जितने रन हैं वे इस बातको अधिक बढ़ाकर कहनेकी सब मेरे हो जायें। कोई आवश्यकता नहीं कि किसी देश-: यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। की सामाजिक, नैतिक तथा धार्मिक नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमंत्रजेत्॥ उजति सब प्रकारसे होनेके लिए उस इस प्रसिद्ध श्लोकमें मर्मज्ञ व्यासने देसके लोगोंमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों- जो उपदेश दिया है उसके अनुसार, यदि का उपयोग योग्य रीतिसे होना चाहिए। जगतके सब उपभोग्य पदार्थ एकको ही यदि इन वृत्तियोंके यथायोग्य वाकार मिल जायँ तो भी घे पूरे न पड़ेंगे; इस- करने में कुछ अन्तर पड़ जाय तो समाज : लिए यह बात जानकर मनुष्यको उचित हीमावस्थाकी भोर भुक जाता है। जब है कि वह शमप्रधान वृत्तिसे रहे। परन्तु ७४